लेखिका - पूजा खत्री
लखनऊ
सुन मेरे जमीर
इस मुर्दों की बस्ती में अभी
तुझे जिंदा रहना होगा क्यूंकि
अभी ईश्वर ने नहीं समेटी अपनी
अच्छाईयो की चादर
सभ्यता के इस अंतिम दौर में
अभी भी बाकी है हवाओ में थोड़ी
नमी ओर घास में भी है हरापन
अभी भी कुछ लोग हैं
न्याय के लिए निरीह बेबस के संग
कुछ भी बेदम बेआवाज खत्म नहीं हुआ
अभी भी चिड़ियां चहक रही हैं
ओर सूरज की तपिश बरकरार
जीवन बाकी है धरती पर
कुछ भी नहीं हुआ तार तार
मदमस्त हवा का चलना ओर
तारो का निकालना
कोयल की कू कू ओर मुर्गे की बांग
नदियों की कल कल ओर झरनो का सफर
सब कुछ वैसा ही जैसा हमें मिला
पर बदला कौन बस ये समझना होगा..
नहीं मेरे जमीर
तुझे नहीं बदलना होगा इस अतृप्त
सागर में तुझे अभी जिंदा रहना होगा
मेरे लिए आने वाली नस्लों के लिए
तुझे खुद को सौंपना होगा पीढ़ी दर पीढ़ी
हमेशा के लिए अमर हो जाने के लिए
जीना होगा बिना कुछ कहे सोचे समझे
बस इंसानियत के लिए ..