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'हर पल है इक युद्ध छिड़ा'- विनीता मिश्रा

                                                   लेखिका - विनीता मिश्रा (लखनऊ)

इस कंचन काया के भीतर
एक लोहे सा तन तपता है
जो लड़ता है तलवार बना 
और कभी नहीं वो थकता है।

न जाने कितने तीर हुआ
और संधान किए कितने
जितने भी इस पर वार हुए
बन ढाल बना सब सहता है।

हर पल है इक युद्ध छिड़ा
 निकल म्यान से वही भिड़ा
कभी भीम की गदा हुआ
कभी अर्जुन का रथ बनता है।

जब द्यूत विभीषिका आई थी
हर दृष्टि ही पथराई थी
गांधारी  नेत्र पट्टिका से
अनंत चीर सा बढ़ता है।

आधी नारी आधा नर
तुमको दिखता नहीं अगर
रणचंडी का रूप धरे फिर
शंकर सा वो दिखता है।

क्यों कोमल काया ही दिखती
लौह कर्म न दिख पाता
राणा, शिवा, अभिजीतों को
ये कोमल तन ही जनता है।

तुम पुरुष बड़े बलशाली से
पर शक्ति नारी रूप सदा
इक बार पुरुष सी दिखी अगर
क्यों तुमको इतना खलता है?


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