लेखिका-विनीता मिश्रा, लखनऊ
जब तक तेरे दिल के अन्दर, जंग की हसरत बाक़ी है।
मेरे मन में भी ऐ दुश्मन, थोड़ी नफ़रत बाक़ी है।
चले गए हैं मौसम सारे, बाग से फूलों वाले पर।
मेरी क्यारी और गमलों में, अभी भी जन्नत बाक़ी है।
लाख छुपाई उसने हमसे, आदत धोखेबाजी की।
आंखों में थी दिख जाती,जो उसकी फितरत बाक़ी है।
अभी तेरे अहसानों के, काफ़ी कर्ज चुकाने हैं।
मेरे हिस्से जो आएगी, थोड़ी किस्मत बाक़ी है।
ज़िक्र तेरा हम कर न पाए,कभी किसी की महफ़िल में।
रुसवा हो बदनाम हुए है,हम में उल्फत बाक़ी है।
मुल्क हमारा हमसे कहता, आओ हम पर जान लुटा दो!
शांति का हम सबक सिखाते,क्या और अदावत बाक़ी है?
पांव बिवाई फटी हुई थीऔर हाथों में छाले थे।
आशिक़ अंधे बोल रहे थे अभी नज़ाकत बाक़ी है।
दे रखी थी हमने तुमको, एक अमानत अपनी भी।
नीयत तेरी ताक रहे हैं ,अभी ख़यानत बाक़ी है।
जब तक तेरे दिल के अन्दर, जंग की हसरत बाक़ी है।
मेरे मन में भी ऐ दुश्मन, थोड़ी नफ़रत बाक़ी है।
चले गए हैं मौसम सारे, बाग से फूलों वाले पर।
मेरी क्यारी और गमलों में, अभी भी जन्नत बाक़ी है।
लाख छुपाई उसने हमसे, आदत धोखेबाजी की।
आंखों में थी दिख जाती,जो उसकी फितरत बाक़ी है।
अभी तेरे अहसानों के, काफ़ी कर्ज चुकाने हैं।
मेरे हिस्से जो आएगी, थोड़ी किस्मत बाक़ी है।
ज़िक्र तेरा हम कर न पाए,कभी किसी की महफ़िल में।
रुसवा हो बदनाम हुए है,हम में उल्फत बाक़ी है।
मुल्क हमारा हमसे कहता, आओ हम पर जान लुटा दो!
शांति का हम सबक सिखाते,क्या और अदावत बाक़ी है?
पांव बिवाई फटी हुई थीऔर हाथों में छाले थे।
आशिक़ अंधे बोल रहे थे अभी नज़ाकत बाक़ी है।
दे रखी थी हमने तुमको, एक अमानत अपनी भी।
नीयत तेरी ताक रहे हैं ,अभी ख़यानत बाक़ी है।
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