लेखिका - पूजा खत्री, लखनऊ
ओ मेरे दिल की कशमकश
तू बता कहां लिखा है
कि मोहब्बत
बंद दायरों
में होती है
ये तो रूह की वो
परवाज़ है जो कहां
बंधी है जिस्मों में
गर ऐसा होता तो दरवेश को
दरवेशी कबूल
ना होती
न होती खुदा को
खुदाई कबूल
और पपीहे को स्वाति कबूल
न इश्क को मौत कबूल
जो कोई भी जला इस इश्क़
की आंच में
बेबाक जला
तपने के लिए
मूल से मिल
कर राख बनने
के लिए
फिर
कौन कहता है कि
मोहब्बत बंद दायरों में होती
ये वो तशनगी है
जो है तो बस है इक
जुस्तजू बूंद के सागर
में मिल जाने की
फिर से इक हो जाने की
क्यूंकि इश्क़ कभी
बंटा ही नहीं
किसी इक धारा में
वो बहता ही रहा
हमेशा से
अपने मूल से मिल जाने के लिए
इस लोक से उस लोक तक
सोचो..
ओ मेरे दिल की कशमकश
तू बता कहां लिखा है
कि मोहब्बत
बंद दायरों
में होती है
ये तो रूह की वो
परवाज़ है जो कहां
बंधी है जिस्मों में
गर ऐसा होता तो दरवेश को
दरवेशी कबूल
ना होती
न होती खुदा को
खुदाई कबूल
और पपीहे को स्वाति कबूल
न इश्क को मौत कबूल
जो कोई भी जला इस इश्क़
की आंच में
बेबाक जला
तपने के लिए
मूल से मिल
कर राख बनने
के लिए
फिर
कौन कहता है कि
मोहब्बत बंद दायरों में होती
ये वो तशनगी है
जो है तो बस है इक
जुस्तजू बूंद के सागर
में मिल जाने की
फिर से इक हो जाने की
क्यूंकि इश्क़ कभी
बंटा ही नहीं
किसी इक धारा में
वो बहता ही रहा
हमेशा से
अपने मूल से मिल जाने के लिए
इस लोक से उस लोक तक
सोचो..