लेखिका - सीमा तोमर, गाजियाबाद
उठकर संभलकर गिरती है निगाहें
कई निशब्द से इशारे करती है निगाहें
ना हम कुछ कहे तो समझ जाइएगा
न कहकर भी बहुत कुछ कहती है निगाहें
दर्द हो या ख़ुशी बस जताने के लिए
बहती है निगाहे
निशब्द से इशारे करती है निगाहें
कभी चालबाजियों को भी अंजाम देती है निगाहे
ओर कभी कभी बीच रस्ते में लूट लेतीं है निगाहें
क्या क्या बयां करू कितने जुर्म करती है निगाहें
बस हुनर ये है कि हर जुर्म को झुककर छुपा देती है निगाहे
निशब्द से इशारे करती है निगाहें।
उठकर संभलकर गिरती है निगाहें
कई निशब्द से इशारे करती है निगाहें
ना हम कुछ कहे तो समझ जाइएगा
न कहकर भी बहुत कुछ कहती है निगाहें
दर्द हो या ख़ुशी बस जताने के लिए
बहती है निगाहे
निशब्द से इशारे करती है निगाहें
कभी चालबाजियों को भी अंजाम देती है निगाहे
ओर कभी कभी बीच रस्ते में लूट लेतीं है निगाहें
क्या क्या बयां करू कितने जुर्म करती है निगाहें
बस हुनर ये है कि हर जुर्म को झुककर छुपा देती है निगाहे
निशब्द से इशारे करती है निगाहें।
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