लेखिका - दिव्या शुक्ला ( प्रतापगढ़)
कभी कभी ख्याल आता है
इक बेतुका बचकाना सा ख्याल
कितना अच्छा होता अगर तुम
लिबास होते मंहगा डिजाईनर लिबास
तुम्हें बिना सोचे समझे दे देती मै
अपनी कामवाली बाई को --पता है क्यूँ
उसको पहन कर वो काम पर जाती
न जाने कितने धब्बे लगा लाती
तब तुम्हें महसूस होता कैसा लगता है
दिल पे जब दर्द के दाग लगते हैं
और भी अच्छा होता अगर तुम
किताब होते वो किताब जिसे हर कोई
पढना चाहता पर वो सिर्फ मेरे पास होती
मै बेहिचक उसे कबाड़ी को मुफ्त में दे देती
जब एक एक पन्ने की पुड़िया बना कर उसे
वो किसी मूंगफली के ठेले वाले को दे आता
तब शायेद तुम्हें अहसास होता मेरे दर्द का
मैने दिल के हर सफ़े पर लिखा था तुम्हारा नाम
जो बड़ी बेदर्दी से मुट्ठी में मींच मींच कर फाड़े थे न तुमने
पर ---काश --अगर ऐसा होता ------
कोई बात नहीं मै सोच कर ही खुश हूँ ।
कभी कभी ख्याल आता है
इक बेतुका बचकाना सा ख्याल
कितना अच्छा होता अगर तुम
लिबास होते मंहगा डिजाईनर लिबास
तुम्हें बिना सोचे समझे दे देती मै
अपनी कामवाली बाई को --पता है क्यूँ
उसको पहन कर वो काम पर जाती
न जाने कितने धब्बे लगा लाती
तब तुम्हें महसूस होता कैसा लगता है
दिल पे जब दर्द के दाग लगते हैं
और भी अच्छा होता अगर तुम
किताब होते वो किताब जिसे हर कोई
पढना चाहता पर वो सिर्फ मेरे पास होती
मै बेहिचक उसे कबाड़ी को मुफ्त में दे देती
जब एक एक पन्ने की पुड़िया बना कर उसे
वो किसी मूंगफली के ठेले वाले को दे आता
तब शायेद तुम्हें अहसास होता मेरे दर्द का
मैने दिल के हर सफ़े पर लिखा था तुम्हारा नाम
जो बड़ी बेदर्दी से मुट्ठी में मींच मींच कर फाड़े थे न तुमने
पर ---काश --अगर ऐसा होता ------
कोई बात नहीं मै सोच कर ही खुश हूँ ।