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'मात्राओं की वह अठखेलियां' -विनीता मिश्रा

                                                         विनीता मिश्रा, लखनऊ

जब तुम्हारी डायरी के 
फाड़े हुए कागज पर
उंगलियों के बीच फंसी हुई पेन से
मन में उठने वाले जज्बात 
धमनी में रक्त बनकर 
दौड़ - दौड़ आते थे 
और,
कलम की स्याही बनकर 
कागज पर बिखर जाते थे
हर लफ्ज़ पर अलग सा दबाव
तुम्हारे लिखने का!
तुम्हारा र और ह  लिखने का अलग अंदाज।
मात्राओं की वह अठखेलियां....
चौपर्तते  समय,
गुलाब की एक पंखुड़ी रख देना।
साथ में तुम्हारे हाथों की खुशबू का मिल जाना।।
ये खुशबू का कॉकटेल
अब व्हाट्सएप मैसेज में कहां मिलता है?
वो कागज का पुर्जा 
छुपाया जाता था
कितने जतन से;
कभी किताबों में
कभी कपड़ों की तह में 
कभी कीमती जेवरातों के साथ।
बरसों बाद पीला सा  होके 
अपनी ही तह के निशानों से फटने के डर से,
पढ़ते-पढ़ते होठों का मुस्कुरा उठना 
आंखों का भीग जाना
फिर समेट कर उसी लॉकर में सहेज देना।
तुम्हारे  जाने के बाद भी 
अक्सर पढ़कर तुम्हें जी लेना
शायद मेरे जाने के बाद 
कोई उन्हें पढ़ेगा जरूर।
आज जब डिलीट बटन दबाते ही 
सब गायब हो जाता है
सच कहूं! 
मन से रिश्तो की
भंगुरता का 
अल्पता का 
लोपता का 
एहसास होता है।
कितना आसान है तुम्हारे लिए,
कह देना  - प्लीज डिलीट!
और मेरे लिए , 
क्लियर चैट कर देना।
पर हर क्लियर चैट पर,
लॉकर में रखे उन पुर्जों  की याद आती है 
जो आज भी
किसी की मोहब्बत की महक से
महक - महक जाती है
महक- महक जाती है......


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