कुसुम सिंह लता, नई दिल्ली
प्रियप्रवास की ध्वनि जब,
गुंजित उर्मिला के श्रुतिपट,
भाव विह्वल हो दौड़ पड़ी,
गिर पड़ी पति - पग झट!
कहा, हे प्रिय प्राणधार !
मैं भी कानन चलूंगी साथ,
दीया बिन कैसे जलेगी,
बाती चिर निरंतर नाथ!
कहा सौमित्र, हे सुन कलत्र!
तुम बिन जिया अति विरक्त,
पर, संग कैसे वन चलोगी,
प्रासाद का चहूँ छोर रिक्त!
पुत्र वियोग संतप्त मातृ
को, ढांढस कौन बंधायेगा,
व्यथित पिता राजा दशरथ
को, कौन सहारा देगा?
नव - यौवन मृदु स्कंध पर,
थमा प्रासाद का कार्य भार,
चले सौमित्र!सिया राम संग,
चैदह वर्षों का वनबास।
अश्रु - कण न ढुले कपोल पर,
वचन अडिग ले गए प्रियवर!
कहा कसम प्रिये, प्रिय की,
दृग्जल से न भीगे नयन कोर।
संयम रख मुख मुस्कान,
बिखराती, उर्मिला डटी रही,
जनक सुता, पति धर्म निभा,
पति वियोग अति सहती रही।
No comments
Post a Comment