विनीता मिश्रा, लखनऊ
शब्द और समय
अद्भुत रिश्ता है
एक मिटता नहीं
एक रहता नहीं ।
एक सीमित है
एक असीम है
वो सीमित होकर अक्षर है
वो असीमित है पर ,
ना रहता है
ना लौटता है
निरंतर चलता रहता है ।
वो ठहरा सा
बस मन में पलता रहता है ।
दोनों का हाथ थामे
कितना अद्भुत है चलना
एक स्थिरता देता है
एक बढ़ा ले जाता है ।
जीवन के शिखरों पर
चढ़ा ले जाता है ।
वो पैर टिकाए रहता है ,
वो हाथ फैलाए रहता है ।
इस सीमित और असीम के बीच
मैं रोज़ समर्पण करती हूँ ,
मैं रोज़ समर्पित होती हूँ।
इस क्षणिक और अनंत के बीच
मैं स्वयं को ढूँढा करती हूँ।
पाती हूँ - खोती हूँ
फिर खो के फिर पा जाती हूँ।
No comments
Post a Comment