पूजा खत्री , लखनऊ
जिंदगी मौत के
खौफ से डरी डरी
आज इस कदर
ज्यूँ इक आहट की दूरी
पर रूकी हो सांसें
घर के कबाड़ में रखी
किसी फटी पुरानी
किताब की जिलद सी
न जाने कब
उसका अस्तित्व मिट जाए जहां से
पेड़ की टहनी से लटका
वो सूखा पीला सा पत्ता
गिरने की कगार पर
इंतज़ार करता हुआ
आंधी का
जो उसकी मौत का फरमान लाने वाली है
मछुआरे के जाल में फंसी उस मछली की तड़प सी
जो हर पल तय कर रही दूरी
किसी का निवाला
बनने के लिए,
जान बचाने की जद्दोजहद
में आगे हिरन पीछे शेर के बीच में
कम होते फासले सी
या फिर बादल की तेज गर्जन
ओर गड़गड़ाहट का सफर
आज फिर कहीं कहर बरसाने को तैयार
धीरे धीरे हर कदम कुछ दूरी को तय करता हुआ
मौत के ओर पास आता हुआ
नियति कुछ भी हो
पर हकीकत इससे परे नहीं
मौत का खौफ इससे अलग तो हो सकता है
पर इससे जुदा नहीं
क्यूंकि जो शाश्वत है
वहीं स्वीकार्य है सदियों से सदियों तक
जो जन्मा है वहीं मृत्यु को प्राप्त है
वही मृत्यु को प्राप्त है.....।
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