![]() |
पूजा खत्री, लखनऊ |
मीरदाद इस संदर्भ में कहते हैं कि समय का नियम ही पुनरावृति है,समय में जो एक बार घट गया,उसका बार-बार घटना अनिवार्य है यहां आत्मा का शारीरिक आवरण में आना अर्थात जन्म के बंधन में आना और मृत्यु की अवस्था से गुजरना, ये पुनरावृति का नियम है जहां तक चौरासी लाख योनियों का संबंध है, यह निर्भर करता है पुनरावृति के लिए प्रत्येक मनुष्य की इच्छा और संकल्प की प्रबलता पर।
जब जीवन चक्र कहलाने वाले चक्र से निकलकर आत्मा मृत्यु कहलाने वाले चक्र में प्रवेश करती है तो अपने साथ अनजाने में ले जाती है, धरती के लिए अनबुझी प्यास और उसके भोगों के लिए अतृप्त कामनाएं,जैसा अलग-अलग धर्मों में विदित है गुरुबाणी कहती हैं "जहां आसां वहां वासा" मौत के आखिर क्षण में अतृप्त कामनाओं के प्रति फैला हुआ ख्याल अगले जन्म स्थान और योनि की पृष्ठभूमि वहीं तय कर देता है,तब आत्मा ने एक शरीर का त्याग किया और दूसरे शरीर के आवरण में आ गई क्यूंकि धरती के चुंबक ने वापस उसे भोगों की ओर खींच लिया अब धरती उसे अपना (इच्छापूर्ति)दूध पिलाएगी, इस प्रकार ये आवागमन एक के बाद दूसरे जीवन में और दूसरी मौत तक और और फिर तीसरी फिर चौथी, यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक स्वयं अपनी ही इच्छा और संकल्प से धरती के (भोगों) दूध का सदा के लिए त्याग न हो जाए।
अब अहम सवाल आखिर ये संभव कैसे हो?
जीवन में रहते हुए इच्छा रहित,भोग रहित जीवन आखिर ये एक कठिन जंग है तब सूफ़ी मत ने प्रेम को स्वीकारा कि ये मुक्ति केवल प्रेम से संभव है वहीं बाणी ने भी कहा "जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभ पायो " आत्मा का परमात्मा से मिलन, देह से परे अनहद का मिलन। पर प्रेम तो मोह है एक बंधन है तो प्रेम मुक्ति का द्वार कैसे हो सकता है, रिश्ते नातों और भौतिकता मे जब हम हर वस्तु से प्रेम करते हैं तो किसी भी वस्तु के प्रति हमारा मोह कैसे कम हो सकता है तो आवागमन की मार्ग से कैसे मुक्त हो
तब मोह और प्रेम के बीच का अंतर को खुली नजर से दरकार किया गया कि प्रेम को वो ऊंची से ऊंची अवस्था, जहां मोह सहजता और सुलभता में परिवर्तित हो जाए, दृष्टि से देखी जाने वाली हर शै ईश्वरीय स्वरुप और जिह्वा है निकलने वाला हर वचन शुभकामनाओं से तृप्त हो, काम के स्थान पर प्रेम लोभ के स्थान पर धैर्य और इच्छाओं की जगह समर्पण का भाव जागृत हो जाए तो वो प्रेम मोह रहित होगा।
यहां से जन्म हुआ दरवेशी का, जहां केवल प्रेम ही प्रेम ही रहा और रहा तेरा की सत्ता "तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा"और मै(अहम)मौन हुआ क्यूंकि अब मैं तो कहीं था ही नहीं जो था बस तेरा तेरा तेरा ,अब किसी से जिव्हा से निकले दुर्वचन लौटकर प्रेम पूर्ण शुभकामनाओं से लिप्त पाएंगे तो अपने लिए कोई और ठिकाना ढूंढ लेंगे काम पूर्ण दृष्टि जब लौटकर उस आंख को जिसमें से बह निकली है प्रेमपूर्ण चितवनों से छलकती हुई पाएगी तो कोई दूसरी काम पूर्ण आंख ढूंढेंगी इस प्रकार का प्रेम कामातुर चितवन की प्रवृत्ति पर रोक लगा देगा दुष्ट ह्रदय से निकली दुष्ट इच्छा जब ह्रदय को प्रेम पूर्ण कामनाओं से छलकता हुआ पाएंगी तो कहीं घोंसला ढूंढेंगी,फिर से जन्म लेने के प्रयास को विफल कर देगी जब पोटली में केवल प्रेम ही बाकी रह जाता है तो समय भी प्रेम के सिवा कुछ और नहीं दोहरा सकता जब हर जगह हर वक्त पर एक चीज आती है तो वह एक नित्यता बन जाती हैं जो संपूर्ण समय और स्थान में व्याप्त हो जाती है इन दोनों के अस्तित्व को मिटा देती है और जीवन और मरण की प्रवृत्ति को रोक देती है तब केवल प्रेम की उपस्थिति और प्रेम का प्रेम से अंगीकार ही एकमात्र ध्येय रह जाता है और वो बन जाता है चौरासी लाख योनियों के आवागमन से मुक्ति ..
No comments
Post a Comment