चाँद पे डेरा डाला तुमने
मैं धरा की गंदुबी गर्द हूँ
चाँदनी रात है
चाँद न ढलने दूँगी
मुठ्ठी में भर लूँगी
सीना तान खड़ी होकर
मेघों को बिखराऊंगी
तुम चाँद के डोले से
उतर आना
आज न जाना
तुम ही मेरे
मेरे प्यार के अखंड दीप
मेरे मनमीत
आत्म संगम चाहती हूँ
अनुपम राग
रसधार में नहाकर
काल के कपाल पर
नया इतिहास
गढ़ना चाहती हूँ
तुम धमनियों का प्रवाह हो
तुममें समाना चाहती हूँ
तुम्हारी रग-रग में,
अंग-अंग में
बहना चाहती हूं
तुम्हारे मन में,
तुम्हारे तन में और
तुम्हारे जीवन में
हो जाना चाहती हूं अभिन्न
और अनंग तुमसे
गूंजना चाहती हूं फिर से
तुम्हारे हृदय के स्पंदन में।
लेखिका - शबनम मेहरोत्रा
कानपुर
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