विनीता मिश्रा, लखनऊ
बड़ी तसल्ली होती है
हम अभी भी एक ऐसे मकान में रहते हैं
जो फ्लैट (समतल) नहीं है
जहां आज भी एक कमरा
यादों को सहेजने - समेटने का है।
जहां आज भी पुराने सूटकेसों
में
भरे हैं: तुम्हारे बचपन के
कपड़े, स्वेटर,गाउन और बाथ रोब!
स्वेटर जो बुने थे
मैंने और दादी - नानी ने
पैंट जो पापा की पैंट से कट कर बनी थी
बोर्डिंग स्कूल के ब्लेजर,बैच, बेल्ट , टाय।
एक ब्रीफकेस वो वाला
जिसमें भरे हैं सर्टिफिकेट्स, रिपोर्ट कार्ड्स
और "कैन डू बेटर" वाली रिपोर्ट
दूसरा फोल्डर ,
हर हफ्ते आने वाली चिट्ठियों का।
एक तिपहिया साइकिल,
रिमोट वाली कार,
बार्बी डॉल ; जिसकी गर्दन टूट गई है....
हॉट व्हील्स की बैक पुश वाली कारें ,
जियाजो के अनेक कैरेक्टर....
मेलामाइन का डिनर सेट
जो डॉल के लिए दिल्ली से आया था...
पर तुमने कभी नहीं खेला - सजाया था
बस सहेजा और दोस्तों को दिखाया था।
आज खोल पुराने बक्सों को
देखा ,पोंछा और सहेज कर रख दिया ।
सब बांट दिया था ,
पर थोड़ा सा बचाकर कर, छुपाकर
रख लिया था।
जैसे चुराया हो समय से थोड़ा सा वक़्त कभी।
कभी एक कहानी पढ़ी थी: शिवानी की;
एक विदेशी वृद्धा
रोज़ अपने बच्चों के बचपन के कपड़े सुखाती थी अलगनी पर....
और शाम को उतार कर रख लेती थी..
पर मुझे अच्छा लगता है
तुम अपने कपड़े खुद फैला रहे हो
अपनी अपनी अलगनी पर
उतार और सहेज रहे हो....
ज़िन्दगी चलती रहे
बढ़ती रहे
क्योंकि
जीना इसी का नाम है।