पूजा खत्री, लखनऊ
उम्र और सदी के
इस छोर पर
खड़े होकर
प्रेम कहानियों पर यकीं करना
वाकई संगीन हो सकता है...!
प्रेम में खिलखिलाना,
प्रेम को जीना,
प्रेम को ओढ़ना, बिछाना
और प्रेम में ही जीना
यकीनन किसी गुनाह से कम नहीं हो सकता..!
प्रेम में ईश्वर हो सकता है
प्रेम ईश्वर हो सकता है
पर प्रेम फिर भी गुनाह हो सकता है
क्यूंकि प्रेम में बगावत की बू हो सकती है..!
समाज की इन सब व्याख्याओं के बावजूद
मैं प्रेम को जीती हूं,मानती हूं
मेरे अंदर- बाहर जो भी समीक्षाएं है,
सब प्रेम की है और प्रेम से ही उपजी हैं
क्यूंकि मैं कहीं ना कहीं यकीं करती हूं
कि ये दुनिया अनंत
तक जी सकती है
उस प्रेम की उंगली थाम कर
जिसकी अनुभूतियां रोमांच
देकर धीरे से गुजर जाती है
आसमां के गहराते काले बादलों की तरह..!
पल-पल मन में उठने वाली
तमाम तरंगों के वेग
जिंदगी को सही मायनों में
प्रेम के कई नए आयामों के साथ
जीना सीखा देते है क्यूंकि प्रेम संकुचित है ही नहीं
अपितु विस्तार है सृष्टि का और
पूरी सृष्टि की ही रचना के लिए...!
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