पूजा खत्री, लखनऊ
एकांत में बैठ कर
देखती हूं इक खयाल
कि मेरी हथेली में रखा
है एक नन्हा सा ख्वाहिशों
का तालाब
डाल देती हूं अक्सर
उसमें अपनी छोटी- छोटी
कुछ चाहतें कुछ बड़े सपने
कभी हल्के कुछ भारी
कुछ डूब जाती है उसमें
देर तक तैर कर कुछ
रह रह कर अपना
मुंह उठाती है मेरे
साथ जीने को शायद
उन्हें उम्मीदों की
आस अभी भी है बाकी
ओर वो जिंदा है
धीमी सांसों के साथ
पर सहमी सहमी सी
जानती है कुछ नयी
ख्वाहिशों के पैदा होने
से पहले डूब ही जायेंगी
वो कुछ नामुमकिन ख्वाहिशें
मैं देखती हूं उनका
पानी के सतह पर नीचे
जाना घबराना ओर
फिर धीरे-धीरे डूबते हुए
मर जाना इक नई
तलाश में जहां
उन्हें नवजीवन मिल सके
खुले आसमां में जीने के लिए.....
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