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गुरु महिमा अपरंपार - सुश्री श्रीधरी दीदी

Friday, September 4, 2020

/ by Dr Pradeep Dwivedi

सुश्री श्रीधरी दीदी 

(प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)


"गुरु" दो अक्षर के इस छोटे से शब्द में सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत समाहित है। गुरु तत्त्व की शरणागति के बिना आध्यात्मिक जगत में किसी जीव का प्रवेश ही नहीं हो सकता। गुरु की महिमा यद्यपि समस्त वेदों-शास्त्रों में गाई गई है लेकिन फिर भी गुरु का पूर्णरूपेण गुणगान करने में सभी असमर्थ हैं। और हों भी क्यों न? क्योंकि वेद तो भगवान की ही महिमा का गान करते समय मौन हो जाते हैं, 'नेति-नेति' कहकर अपनी असमर्थता सिद्ध करते हैं फिर वह 'गुरु तत्त्व ' जिसके पीछे-पीछे भगवान स्वयं चलते हैं उनकी चरण-रज से पावन बनने के लिए -

अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः

(भागवत)

ऐसे गुरु तत्त्व की महिमा का बखान करने में भला कौन समर्थ हो सकता है? 

इसलिए कबीरदास जी ने कहा :

सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराय,

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुण लिखा न जाय।

अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी को कागज बना लिया जाए और विश्व के सभी वृक्षों की कलम बना ली जाए, सातों समुद्रों के बराबर स्याही हो तब भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है क्योंकि गुरु की महिमा अनंत है, अपरंपार है इसलिए स्वयं शेषनाग भी अपने सहस्त्रों मुखों से अनंतकाल तक भी गुरु महिमा गाते रहें तो भी पार नहीं पा सकते।

अब प्रश्न उठता है आखिर क्यों गुरु का इतना अधिक माहात्म्य बताया गया है? क्योंकि बिना गुरु की सहायता के कोई भी जीव कभी अपने परम चरम लक्ष्य आनंद तक अर्थात् भगवान तक नहीं पहुँच सकता। ये ईश्वरीय जगत का अकाट्य कानून है।

जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने वाली बीच की कड़ी का ही नाम महात्मा या गुरु है।

गुरु है महात्मा गोविंद राधे,

आत्मा को परमात्मा ते मिला दे।

(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

गुरु शब्द का अर्थ ही यह है -

गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः।

अन्धकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ।।

(वेद)

अर्थात् 'गु' का अर्थ है माया रूपी अंधकार और 'रु' का अर्थ है उस अंधकार को मिटाने वाला, समाप्त करने वाला। तो माया रूपी अंधकार को मिटाकर जो जीव को ईश्वर रूपी प्रकाश से मिला दे वही गुरु तत्व है और केवल श्रोतिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में समर्थ है, इसीलिए वेद में कहा गया -

परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन ।

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ।।

अर्थात् भगवान का ज्ञान प्राप्त करने के लिए,भगवान को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम किसी वास्तविक महापुरुष (श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ) की अर्थात् सद्गुरु की शरणागति अनिवार्य है। आध्यात्मिक जगत की प्रारंभिक कक्षा से लेकर अंतिम कक्षा तक का ज्ञान कराने में, भगवान से मिलाने में केवल गुरु ही समर्थ है। जीव को तत्वज्ञान कराना, साधना का स्वरूप समझाना, बीच-बीच में शरणागति के अनुसार उसके कुसंस्कारों से लड़ना, अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि पर दिव्य प्रेम का दान करना इत्यादि सारे कार्य गुरु द्वारा ही सम्पादित होते हैं। इसलिए हमारे परम पूज्य गुरुवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं -

प्रेम सम साध्य नहीं गोविंद राधे,

सद्गुरु सम न हितैषी बता दे।

(राधा गोविंद गीत)

ऐसे परम हितैषी सदगुरु की शरणागति करना ही जीवन का सार है।

जीव का असली स्वार्थ (भगवत्प्राप्ति) गुरु कृपा से ही सिद्ध होता है, वही हमारी अनादिकालीन बिगड़ी बात बनाने में समर्थ है इसलिए यहाँ तक कहा गया -

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूँ पाँय,

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।

(कबीरदास जी)

इसी एक दोहे से गुरु की महिमा को हृदयंगम किया जा सकता है। सद्गुरु का स्थान भगवान से भी बड़ा है क्योंकि गुरु रूपी मार्ग के बिना भगवान रूपी मंजिल तक पहुँचना त्रिकाल में भी असंभव है। 

इसीलिए श्री महाराज जी कहते हैं - 

गुरु चरण कमल बलिहार,

गुरु पर तन मन धन वार,

गुरु चरण-धूलि सिर धार,

गुरु महिमा अपरंपार।

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