लेखिका - वर्षा महानन्दा |
हर शाम निकल जाती थी
आंचल सी लहराती उबड़-खाबड़, लंबी सी पगडंडियों पर,
सर्द हवा के थपेड़ों से थरथराती हुई
जैसे पतझड़ में पीले पत्तों को शाखों से टूटने की होती प्रतीक्षा....
पलकें उठतीं कभी गिरतीं, कभी मूंद लेतीं
मानों सदियों से आंख मिचौली खेलती आशा निराशा,
भावनाओं के अथाह सागर में सतह तक गोते लगाने की चेष्टा करती हुई
वह पीली सी लड़की....!
पतली सी अधरों में लिए रुखी सी मुस्कान,
दुर्बल शरीर में हृदय की वेदना को छिपाती
चेहरे पर टंगी सी मुस्कान,
मुस्कुराहट से दूर भागती वह....
रोम-रोम पुलकित हो अपनत्व को सहेजे
कभी वह भी मुस्काई थी,
सुखद जीवन की कल्पना करते लजाई थी,
मधुर स्मृतियों के बोझ ढोती हुई
वह पीली सी लड़की....!
उलझी लंबी सी पगडंडियों से
थके थके भारी से कदमों को उतारती
वर्षों ढोती स्मृतियों के बोझ को
एक-एक कर उस राह पर छोड़ती
न कल्पना,न कोई विद्रोह
थके बदन, हारे हुए मन
समस्त प्नश्नों को विराम देती आंखें
सत्य के कठोर परिहास को कर स्वीकार
एकांत जीवन, सभी शोक का कर समापन
अंतिम पथ पर अग्रसर होती हुई
वह पीली सी लड़की....!