वो मिली थी आज चलती-फिरती मूरत बनीं
सारी ममता समेटे गुदड़ी में........
अनसुलझी सी केश राशि
असंजत से जीर्ण मलिन वस्त्र
मानों थी निमग्न किसी कठोर तप में........
न किसी से उसको मिलना था
न किसी को उससे मिलने की फुर्सत थी
वह चली जाती थी लापरवाह
इस भीड़ भरी दुनिया में.........
सहसा वह चलते चलते रुक सी गयी
कभी हंसती, कभी रोती फिर थम सी गयी
क्षण में भाव भंगिमा परिवर्तित होती
ठौर न पाती अस्थिर मन में..........
हजारों सवालों से भरी उसकी आंखें
चारों दिशाएं नापतीं, तैरतीं
आते जाते अपरिचित चेहरे सभी
मानव के भीतर छिपे दानव को परखती.........
उन दानवों ने उसमें क्या देखा?
रंभा, उर्वशी या मेनका
या रति के रुप सी कामुकता,
क्यों न दिखी उसमें कोई अपनी?
माता, पुत्री या स्नेहिल भगिनी.........
शायद दिल में दर्द उभरा होगा
कहीं टूटकर वो बिखरी होगी
आह! तक न निकलने पाई
जी रही निर्विकार वो मूरत
दंश के दाह लिए बदन में..
वो मिली थी आज चलती-फिरती मूरत बनीं
सारी ममता समेटे गुदड़ी में..
एक मानसिक अक्षम (पगली) प्राण की पीड़ा...
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