दीप्ति गुप्ता ( रांची, झारखंड)
पुरवैया के ठंडे झौंके आए औ चले गए
सुलगते जख्मों को ठंडक दी या न दी
यूं लगता है दहकाते चले गए........
अंजुरियों में भरे थे हमने जो रेत कण
वह फिसलते ही चले गए
भरे थे बड़े जतन से जहां से
जाकर वहीं पर मिल गये........
पसीजती हथेलियों में चिपके हैं कुछ कण
जो चिपके से रह गये
कसकते हैं वह हर पल चूंकि
हमसे वह धोए ना गए.......
गहरी आंखों की तिरछी चितवन
मौन कंपित मुस्कानों के तीर
दिल में गहरे तक उतर गए
तुम्हारे प्यार के अंदाज से
हम अंदर तक हिल गए..........
तालाब में पड़ती परछाई हो तुम
यादों का कंकर फेंका जो मैंने
तुम्हारे अक्स दायरों में बिखर गए
दिख रहे थे अब तक जाने कहां खो गए..........
चांद से दूर हो तुम मुझसे
मेरे हाथ भी है बहुत छोटे
रोशनी मिल रही थी थोड़ी सी
कि बीच में बादल भी आ गए..........
चंद "लम्हे "कैद है मेरी पलकों में
खुली आंखों में चमकते हैं
जो जुगनू बन कर
बंद पलकों से टपकते हैं
वो मोती बनकर........
मेरी कब्र में वह मेरी दौलत बन गए
मेरी कब्र में वह मेरी दौलत बन गए...
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