डॉ. पल्लवी कौशिक ( झारखंड)
जिनके मन मधुवन में कलिका भी खिली नहीं
जिनको पल भर पतझड़ से भी खुशी मिली नहीं
कोयल की स्वरलहरी में जो नहाये नहीं
वो बसंत के मदमस्त प्रहर को क्या जाने
तट पर बैठे जो लोग लहर को क्या जाने
जो सुन न सके संगीत हवा के पायल की
जो देख न पाए खेल चाँद के बादल का
जिनकी किस्मत में अमावस का अभिनंदन है
वो उषा की रंगीन नजर को क्या जाने
तट........
थोथी मर्यादाओं में जो पलते आए
सांसों के बोझ उठाए जो चलते आए
जिनके नभ में बदली ना घिरी बिजली ना हँसी
वो पी-पी रटते हुए नजर को क्या जाने
तट.....
सुधा और गरल कुछ नहीं समर्पण के पथ पर
फूलों तक जाना है शूलोंवाले ऱथ पर
बसते आए जो सदा घृणा की बस्ती में
वो प्रेम नगर या प्रेम डगर को क्या जाने
तट.........!