स्वर्णलता ( नई दिल्ली)
सागर की मैं स्याही बना लूँ,
कागज़ तो कर लूँ मैं धरिणी।
वैसा ही वो फल पायेगा,
जैसी होगी जिसकी करनी।
राम नाम की अविरल धारा,
बहे निरंतर तेरी धमनी।
साथ न जाएगा कुछ भी तो,
मात पिता पुत्र और रमणी।
हरि नाम रट ले मन मेरे,
पार करेगा तू वैतरणी।।
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