कुमारी अर्चना "बिट्टू", कटिहार
मांस का एक लौथड़ा
मरने पर चिथड़ा सा
स्त्री की छाती की जगह
किहीं और संग्रहित हो जाए तो
कैंसर की लाइलाज रोग
फिर तो कोई न छूना चाहेगा
न ही देखना ही!
जब उभरता तो आम का टिकौला
जब धीरे धीरे बढ़ता है अमरूद सा
जब पूर्ण विकास कर लेता
पका पपीते सा
जब ढल जाता तो इमली सा!
दिखावटी चमकता है
पर ना तो फल है
न ही शहद ही न ही दूध मलाई
जो खाई जा सके
ये अमृतधारा है!
शिशुओं के जीवन प्रत्याशा को बढ़ाती
बिमारियों में प्रतिजन का काम करती
फिर क्यों गिद्दों और चीलों की दृष्टि
पहले सदा इसी पर रहती!
डाकूओं के जमाने में बलात्कार के बाद
ये अंग काट साथ ले जाते थे
बाद ग़र सावधानी हटी तो
कभी पंजा मारे जाते तो
कभी दबा दिए जाते
अब तो रास्ता चलते
नौंच खरौंच लिए जाते
छत बिछत कर खुलेआम
तमाशाबिनों को देखने के लिए
यूँ ही छोड़ दिए जाते हैं!
बलात्कार के बाद बच भी गई तो
शर्म से वो मर जाती है
सोच सोच कर मन ही
मन खुद को कोसती
उसकी किस्मत में ही
ये सब लिखा था पर
उसका दोष क्या है?
ये तो स्त्री को दिया
ईश्वर रूपी श्रृंगार है
जैसे पुरूष की चौड़ी छाती!
मर्यादा में तो कभी डर से ओढ़ती है
स्त्री कभी दुपट्टा तो कभी साड़ी
कभी हाथों को आगे कर ढकना चाहती है
जो बंद तो है वस्त्रों के कई परतों में पर
अंदर से उभर कर गंदी नजरों को
सब दिख रहा होता
कैसे छुपाए अपने उभारों को
कि खुद ही छुप जाए बंद कमरे में
पर वहाँ भी कई अपनों के भेष में
कई दुर्योधन और दुशासन बैठे हैं
चीर हरन करने को!