निखिलेश मिश्रा, लखनऊ
विदेशी धरती पर संदिग्ध परिस्थितियों में भारतीय पीएम लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की मौत से सन्नाटा छा गया।
साल १९६५, भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध खत्म हुए अभी कुछ दिन बीते थे। नया साल शुरू हुआ। यूं तो राजधानी दिल्ली में ठंडक सबाब पर थी, लेकिन भारत-पाक की सीमा पर बारूद की गंध और गोलियों की गर्माहट अभी भी महसूस की जा सकती थी। इन सबके बीच दोनों देशों के बीच बातचीत की रूपरेखा बनी और इसके लिए जो जगह तय की गई वह न तो भारत में थी और न ही पाकिस्तान में। तत्कालीन सोवियत रूस के अंतर्गत आने वाले 'ताशकंद' में १० जनवरी १९६६ को भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) और पड़ोसी पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच बातचीत मुकर्रर हुई।
१० जनवरी १९६६ की उस सुबह 'ताशकंद' में ठंडक कुछ ज्यादा ही थी। यूं भी कह सकते हैं कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल को ऐसी ठंडक झेलने की आदत नहीं थी, इसलिये उनकी दुश्वारी कुछ ज्यादा ही थी। मुलाकात का वक्त पहले से तय था। लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान तय वक्त पर मिले। बातचीत काफी लंबी चली और दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया। ऐसे में दोनों मुल्कों के शीर्ष नेताओं और प्रतिनिधिमंडल में शामिल अधिकारियों का खु़श होना लाजिमी था, लेकिन वह रात भारत पर भारी पड़ी। १०-११ जनवरी की दरम्यानी रात प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध परिस्थितों में मौत हो गई।
उस दिन ताशकंद में भारतीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल रहे वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर इस घटना का जिक्र अपनी आत्मकथा 'बियॉन्ड द लाइंस (Beyond the Lines)' में करते हुए लिखते हैं, ''आधी रात के बाद अचानक मेरे कमरे की घंटी बजी। दरवाजे पर एक महिला खड़ी थी। उसने कहा कि आपके प्रधानमंत्री की हालत गंभीर है। मैं करीबन भागते हुए उनके कमरे में पहुंचा, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कमरे में खड़े एक शख़्स ने इशारा से बताया कि पीएम की मौत हो चुकी है''। उस ऐतिहासिक समझौते के कुछ घंटों बाद ही भारत के लिए सब कुछ बदल गया। विदेशी धरती पर संदिग्ध परिस्थितियों में भारतीय पीएम की मौत से सन्नाटा छा गया। लोग दुखी तो थे ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हैरान थे।
लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की मौत के बाद तमाम सवाल खड़े। उनकी मौत के पीछे साजिश की बात भी कही गई। खासकर जब शास्त्री जी की मौत के दो अहम गवाहों, उनके निजी चिकित्सक आर एन चुग और घरेलू सहायक राम नाथ की सड़क दुर्घटनाओं में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई तो यह रहस्य और गहरा गया। लाल बहादुर शास्त्री की मौत के एक दशक बाद १९७७ में सरकार ने उनकी मौत की जांच के लिए राज नारायण समिति का गठन किया। इस समिति ने तमाम पहलुओं पर अपनी जांच की, लेकिन आज तक इस समिति की रिपोर्ट का अता-पता नहीं है।
यहां तक कि राज्यसभा के पास भी इस समिति की रिपोर्ट की कोई कॉपी नहीं है। सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलू ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, ''संसद बहुत सावधानी से दस्तावेजों को सहेजने के लिए जानी जाती है। संसद में कहा गया हर शब्द रिकार्ड और सार्वजनिक दायरे में रखा जाता है, एक ऐसा भारी-भरकम काम है जिसे कार्यालय बिल्कुल सही तरह से कर रहा है। तब ऐसा महत्वपूर्ण रिकार्ड कैसे गायब हो गया''। उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री की मौत से जुड़े तमाम गोपनीय रिकार्ड प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के सामने रखने के निर्देश भी दिये हैं, इसे सार्वजनिक करने के संबंध में निर्णय लें।
ताशकंद समझौता संयुक्त रूप से प्रकाशित हुआ था। 'ताशकंद सम्मेलन' सोवियत रूस के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था। इसमें कहा गया था कि-
-भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने-अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से तय करेंगे।
-दोनों देश २५ फ़रवरी १९६६ तक अपनी सेनाएँ 5 अगस्त १९६५ की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे।
-इन दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्ताएँ तथा अन्य स्तरों पर वार्ताएँ जारी रहेंगी।
-भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बन्ध एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे।
-दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध फिर से स्थापित कर दिये जाएँगे।
-एक-दूसरे के बीच में प्रचार के कार्य को फिर से सुचारू कर दिया जाएगा।
-आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों तथा संचार सम्बन्धों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जाएगा।
-ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएँगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो।
-शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जाएगा तथा हाल के संघर्ष में ज़ब्त की गई एक दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।
इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएँ उस सीमा रेखा पर वापस लौट गईं, जहाँ पर वे युद्ध के पूर्व में तैनात थी, परन्तु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन सम्बन्धों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। फिर भी ताशकंद घोषणा इस कारण से याद रखी जाएगी कि इस पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों बाद भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की दु:खद मृत्यु हो गई थी।
देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। वह जाति प्रथा के भी घोर विरोधी थे। यही वजह है कि काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही उन्होंने अपना सरनेम बदल लिया था।
लाल बहादुर शास्त्री के पिता का नाम शारदा श्रीवास्तव प्रसाद और माता का नाम रामदुलारी देवी था। उनका जन्म ०२ अक्टूबर, १९०१ में हुआ था। शास्त्री जी जातिवाद प्रथा के प्रबल विरोधी थे। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलते ही उन्होंने जन्म से चले आ रहे जातिसूचक सरनेम श्रीवास्तव को हटाकर नाम के आगे हमेशा के लिए शास्त्री लगा लिया था।
उनका परिवार आज तक इसका निर्वाह करता आ रहा है। भारत में जातिवादी प्रथा की जड़ें काफी गहरी हैं। इसके उन्मूलन को लेकर समय-समय पर सामाजिक जनजागरण का अभियान चलता रहा है। लाल बहादुर शास्त्री ने भी इस मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। बता दें कि शास्त्री जी को शादी में दहेज के तौर पर एक चरखा और कुछ गज कपड़े मिले थे।
शास्त्री जी बेहद साधारण परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि वह स्कूल जाने के लिए नाव का पैसा भी चुका पाने में भी असमर्थ थे। ऐसे में वह तैर कर नदी पार कर स्कूल जाते थे। उनसे इसी तरह का एक और किस्सा जुड़ा है। दरअसल, एक बार उनके पास के एक गांव में मेला लगा था, जहां नदी पार कर जाना पड़ता था। वह भी अपने दोस्तों के साथ मेला देखने गए थे।
मेले में उनके सारे पैसे खर्च हो गए। जब अपना गांव जाने के लिए नदी किनारे पहुंचे तो उनकी जेब में नाव वाले को देने के लिए पैसे ही नहीं थे। उस वक्त उन्होंने अपने दोस्तों से कहा था कि उन्हें कुछ काम है, इसलिए वह बाद में घर जाएंगे। शास्त्री जी के सभी दोस्त नाव में सवार होकर गांव चले गए थे। इसके बाद शास्त्री जी तैर कर नदी पार की थी और अपने घर पहुंचे थे। शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि उनके दोस्त उनके किराये का बोझ उठाएं।