पूजा खत्री, लखनऊ
"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भयो न कोय
अढ़ाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय"
कबीर जी का यह प्रचलित दोहा बचपन से ही पढ़ते सुनते आ रहे हैं...पर कुछ संशय है ...कबीर जी तो लिख रहे हैं ..... "पोथी पढ़ पढ़" मतलब ज्ञान अर्जन और ज्ञान अर्जन की तो कोई परिसीमा ही नहीं है।
एक जिज्ञासु के लिए....वो तो जीवन भर पढ़ता रहे ....फिर भी सृष्टि में फैले हुए ज्ञान से अपूर्ण है ....इस बात को तो वह स्वयं स्वीकार्यता है कि अभी कुछ और सीखने जानने की चाह है.... जीवन पर्यन्त ये चाह बनी रहती है.....ज्ञान अर्जन के लिए।
विभिन्न धर्म ग्रंथों का.... पुस्तकों का चिंतन चलता है... साथ ही चलती है परिकल्पना सम्पूर्णता की... और जहां बोध स्तर ये दस्तक देने लगता है.... कि हम औरों की अपेक्षा ऊंची काबिलियत रखते हैं ...
तो फिर क्यूं कबीर जी ये कह रहे हैैं,
"पंडित भयो न कोय" अगर किताबी ज्ञान है..... पुस्तकों और धर्म को खंगाला जा चुका है बौद्धिक स्तर पर ...तो भी ये बात क्यूं,.... शायद इसकी मूल वजह ये तो नहीं कि ये सारा संचय, ये ग्रंथ, ये पुस्तकें.... सब उस मूक ज्ञान को उपलब्ध कराने का प्रयास था.....लिपिबद्ध करने की कोशिश ......जिसे हम जैसे जिज्ञासु पढ़ते हैं ... अपनी ज्ञान क्षुब्धा को मिटाने के लिए ....पर जिसे अनपढ़ कबीर जी ने,नेत्रहीन सूरदास जी ने , मोची रविदास जी ने अपने करनी में प्रकट किया ......जिसे अपने आंतरिक अनुभवों के आधार पर कह दिया और बड़े बड़े सूरमा बुद्धिजीवी उस ज्ञान से परे रह गये..… वो ज्ञान जो बाहरी था किताबी था... शब्दों में था पर व्यवहार में नहीं ... चूंकि ज्ञान हमेशा से संकुचित है और जो चीज संकुचित है वो सम्पूर्ण कायनात का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है ...
फिर आगे उन्होंने कहा दिया "अढ़ाई अक्षर प्रेम का "
....अरे .....इतने कम शब्दों में पंडित कैसे हुआ जा सकता है .....असंभव.. अमूमन मन में ये संकल्प जन्म लेता है.. कि प्रेम में कोई पंडित कैसे होगा ....ये नहीं हो सकता देखा जाय... तो नही ही हो सकता ..पर ये तो हो गया.... मीरा दीवानी हो गई .... "हे री मैं तो प्रेम दीवानी" और ऐसी दीवानी कि "मेरो दर्द न जाने कोय" ...अब राज पाट है,.....रानी है ....,विधवा है ..और प्रेम में है.. तो बदनामी से घिर गई ..पर नाम कर गयी ....भक्ति मार्ग में... क्यूंकि रुहानी प्रेम में सुप्त आत्मा जागृत हो गई और विरह में.… पति प्रियतम की तलाश में एकमेक हो गई .... जो आत्मा परमात्मा की बिछुड़ी अंश थी....., सचखंड वासी थी और मृत्यु लोक पर कर्म के अधीन थी.… अब मुक्त थी.. रुहानी प्रेम में तृप्त... अब वो कर्ता नहीं रही ...कर्ता के अधीन कर्म मुक्त रुह थी ....क्यूंकि अब वो प्रेम में थी और ...प्रेम की सहज अवस्था ही खुदाई है... मिलन है ...मुक्ति है...जो शब्द से परे है...ज्ञान से परे है ...शास्त्रार्थ से परे है.... सत्संग है ...जहां सत्य की उपलब्धता है .....बोध है और सम्पूर्णता है ...वो आंतरिक दृष्टि है जो शिवनेत्र के द्वार को जानती है.… वो जिह्वा है जो सत्य की है ...और वो कान है जो अहनद को सुनते हैं ....
इसलिए ज्ञान होना भाग्य की बात पर .. पर सोझी होना उस मालिक खुदा की रहमत ...इस बात को चरितार्थ करती ये कबीर जी की बाणी कह रही है .....प्रेम विस्तार है ... शब्द से परे है ... इच्छा रहित है..... वासना रहित है.... पर ये सब को उपलब्ध नहीं है क्यूंकि प्रेम ही प्रेम को खींचता है ... दुनिया ने दुनिया मांगी... पदार्थ मांगे... कुर्सी मांगी .. सत्ता मांगी ...जो मांगा वो ही मिला.. फकीर ने प्रेम मांगा .. प्रेम बांटा... प्रेम खाया ..प्रेम ओढ़ा
मालिक की रज़ा मांगी... खुद मालिक आ मिला ..बाकी
सृष्टि चलायमान है हमेशा से और रहेगी ..
चूंकि सृष्टि लुभायमान पदार्थों से भरी हुई है इसलिए सत्य को खोजने की चाह नहीं और जहां चाह नहीं वहां राह कैसे निकलेगी इसलिए सृष्टि में ये सवाल हमेशा से रहेगा...