डॉ शोभा बाजपेयी, लखनऊ
रात करवा चौथ का नन्हा चांद अमृत कलश ले
बिंदास मेरी छत पर झूमता, मुसकराता आया ।
कुछ पल ठहरा, फिर मेरी ओर निहार कर बोला,
लो भर लो तुम झट, अपना रीता घट और प्याला ।
लो समेट सारी ठंढ और मिठास अपनी बोली में,
और बांट दो काव्यामृत अपनी पूरी की पूरी टोली में।
मार रहे हैं जो तंज हर प्रहर, घूम घूम डगर डगर,
तुम्हारे शहर में घोल रहे हैं, सांप्रदायिकता का जहर।
लो बता दो उन्हें जो बो रहे हैं वैमनस्य शाम-ओ-सहर,
नहीं देखता मैं छतों पर झण्डे का रंग हरा है या केसर।
लोग मना रहे हैं ईद या पूर रहे हैं करवा चौथ की चौक,
खील-गट्टे संग सेवईयों का लगे मुझे भोग यही है शौक।
लो बता दो अपने गीतों से दिलो-दिमाग के दिवालिओं को,
यह धरा सदा बेकल रही है प्यार की फसल लहलहाने को।
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