मनोरमा सिंह
आजमगढ़
फिर तो बेहतर, अभी भूल जाऊँ तुम्हें
पास में आश भी खाश कुछ न रही......
हो मुकम्मल, तुम्हारी हर - इक दास्ताँ
न अब वो किस्सा रहा न कहानी रही.....
बुत के माथे चढे़ फूल मुरझा गये
दानिशीं न रही, फरिश्तगी न रही.......
लौटकर के वही तीर आये इधर
तीरगी में फंसे,औʼ धार भी न रही......
गम के गुलफाम कितने मिले राह में
न वो खुशबू रही, न सिफ़त ही रही......
रंग, खुशबू, फिजा में भटकते रहे
रात फूलों की बारात लुटती रही.......
लौट चल ऐ दिल-ए-बेसबर अब यहाँ
न वो जलवा रहा, न वो चिलमन रही
तीरगी| अंधेरा
सिफ़त| विशेषता या गुण
गुलफाम| फूलों के जैसा
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