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पुष्प लता राठौर, कानपुर ( ऊ0 प्र0 ) |
प्रेयसी बन कर रहो मम ह्रदय बन प्रांगण में तुम।
फिर रसीले तीर छोड़ो रति मदन के बाण से तुम।।
सैकङो ही तीर चलते बहने लगी रसधार सी ज्यों।
मनमुग्ध हो अंगङाइयां भरने लगा यह बदन ज्यों।।
जैसे लपकती दामिनी किलकारियां भर आ रही हैं।
फुंकार भरती नागिनें रुक रुकके डंसती जा रहीं हैं।।
रक्त बर्णित देह भी दिखने लगी अब कामिनी सी।
बादलों का दल सुसज्जित सागरों में दामिनी सी।।
प्रियतम को देखे ही बिना उद्वेग से तन भर गया है।
रसपान में डूबा भ्रमर अब रक्त -रंजित लग रहा है।।
सोलह किये श्रंगार ज्यों सोलह की धारा दे रही है।
पावसी की ये अद्भुत छटा षोडशी सी लग रही है।।
रस फुहारों की अगन ज्यों वेदना बन खिल रही है।
रूप सी रसधार सजकर प्रेयसी बन मिल रही है।।
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