ऋचा सिन्हा, नवी मुंबई
तरकश लिए काँधे पर वो...
भरी हैं असंख्य तीर सी वेदनाएँ उसमें
ज्वलंत हृदय तपती देह
विचर रही वो संताप में
कभी ढुलक जाते हैं चक्षु नीर
शायद वो कोई देवी या परित्यक्ता
अभागिनी है या चंडालिनी
या एक औरत .......
समाज की प्रतिक्रियाएँ
हाथों की लकीरें तो गाढ़ी हैं
माथा भी चौड़ा है
पाँव की मध्यम उँगली भी बड़ी है
फिर क्या ?
हृदय में पड़ी गाँठे सख़्त हैं
आत्मा लहूलुहान है
शरीर मानो एक मिट्टी का ढेर
कहीं तो रखना होगा
ढेर को कर्म की कसौटी पर परखना होगा
एक और आहुति
कब तक ?
तरकश में भरनी होगी सभ्यता
औरत की निर्भीकता
वो पा सके अपनी पसंद का संसार !
चुन सके अपने हिस्से का आसमान !
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