क्षमा शुक्ला ( ओरंगाबाद, बिहार)
"मुझे फर्क नहीं पड़ता"
कहने वाली का भी,
बेबाकी की शीर्ष पर पहुँच,,
हो जाता है विचलन....
क्यूँकी पुरुष तो छोड़ो!
एक स्त्री भी करती रहती
सदैव चरित्र आंकलन......
निस्संदेह स्वयं को समझौतों से
दरकिनार करते रहती,
खंड खंड में बिखरे हृदय को
हिमवान समझती,
पर मन के किसी कोने में,
टकटकी लगाये रहता
एक और मन....
फिर बेबाकी की शीर्ष पर पहुँच
हो जाता है विचलन.....
ये जो "चरित्र" शब्द है न,
नारी जीवन में मील के पत्थर सा है
जो सधे रहता हर पड़ाव पर ,
ताकि आते जाते कोई भी,
कर सके अवलोकन.....
" मुझे फर्क नहीं पड़ता"
कहने के बाद भी,
कई नजरों को अपनी नजरों में उतार,
करने लगती चरित्र आंकलन......
फिर बेबाकी की शीर्ष पर पंहुच,
हो जाता है विचलन.....