कविता सिंह, वाराणसी
सोचा है कभी?
कितनी खूबसूरत होती हैं
स्वतंत्रता की अदृश्य बेड़ियां...
बांधती हैं
उन्मुक्तता के एहसास को,
तोड़ने नहीं देतीं
कभी बंधन सीमाओं की,
भर लो कुलाँचें चाहे जितनी
अरण्य की हदें करती हैं
मजबूर लौट जाने को...
सुना है कभी?
वाचाल हैं कितनी
मौन की ध्वनियां,
सांसों में घुलकर,
धड़कनों की लय से
करती स्पंदित हृदय पर
रख हथेली सुनना कभी
इस मौन को....
महसूस किया है कभी?
है एहसास के परे,
उदास सी खुशियां,
भरा गला और मुस्कान होंठो की
हँसती आंखों में तैरती नमीं,
ढुलकते अश्कों को पीते हुए,
कभी महसूस करना ,
खुशियों के पीछे छुपी उदासियाँ...
झेला है कभी?
भेदती है कितनीं
घृणा से भरी बातें प्यार की,
उतरतीं है नस्तर सी
दिल के आर-पार।
रक्त रिसता नहीं,
जम - सा जाता है।
लाद कांधे पर,
मृत जीवन ढोना कभी...
बहुत ही सुन्दर और सटीक
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