विनीता मिश्र ( लखनऊ) |
प्रेम नहीं विवश
स्वीकार्यता या नकार का
ये नहीं भाव किसी अधिकार का।
ये नहीं बंधा तुम्हारे आने या चले जाने में
ये नहीं रूठने - मनाने में।
अक्षर सा अक्षर है
मौन सा मुखर है
कंचनजंगा सा धवल है
और उसका ही शिखर है।
आकाश सा विस्तृत
तो मेघ सा अनिश्चित है।
अंतरिक्ष सा असीमित भी
और हृदय सा संकुचित है।
आओ बांध लूं मैं अपनी सीमित भुजाओं में
तुम्हारे असीम भाव को।