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क्या गलत कहा दिनकर जी ने
है अपना ये नव वर्ष नहीं,
कुछ सहमी सी है वसुंधरा
उसमे संस्कृति का हर्ष नहीं !
वो काँप रही है सर्दी से
पेड़ों के पत्ते भी चुप है
सूरज भी दूर हुआ उससे
कहीं कहीं अँधेरा भी घुप है
प्रकृति में अभी नहीं हलचल
न ही दिखता है आकर्ष कहीं !
खेतों में बैठा है किसान
सकुचाया सा थर्राया सा
वो शूल भरी इन रातों में
बर्फीली ओस में नहाया सा
वो अन्न का दाता है देखो
क्या ये उसका संघर्ष नहीं !
कुछ दृष्टि डालो राहों पर
गलियारों पर चौराहों पर
चीथड़ों में लिपटे बैठे है
सर्दी से सिकुड़े ऐंठे है
तुम जश्न मनाओगे कैसे
तुम्हे रोकेगा आदर्श नहीं !
है अपनी नहीं ये परम्परा
क्यूँ इसको तुम अपनाते हो ?
क्यूँ भूल के अपनी मर्यादा
पश्चिम के रंग बरसाते हो ?
इसे हिन्दू राष्ट्र बना दो फिर
युवाओं का है पथ दर्श यही !
जब धरती करवट बदलेगी
सूरज से हाथ मिलाएगी
बादल भी नतमस्तक होगा
प्रकृति जब रास रचाएगी
धानी चुनर में सजी धरा
होगा सुंदर फिर दर्श यही !
अपनी पहचान नहीं खोना
मत खोना अपनी संस्कृति को
जिसने भारत को बर्बाद किया
मत अपनाना उस विकृति को
ये बीज बो रहे हो तुम जो
नव पीढ़ी का उत्कर्ष नहीं !
जब होली के रंग बिखरे होंगे
मन होगा फिर वृंदावन सा
छाया होगा चंहु ओर बसंत
हर कोना होगा मनभावन सा
नित नूतन नवल नयेपन का
होगा अपना नववर्ष वही
होगा अपना नववर्ष वही !
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