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ऋचा सिन्हा, आगरा |
एक बुंद चली
आना तो था सीधा धरा पर
हवाओं के थपेड़ों से
भटक गई
गिरी एक टूटे से मकान पर
छत पर ना ठहर
गिरी सीधी कमरे के अंदर
टूटी छत
ठिठकी देख दशा घर की
पहले ही बूँदों का झमघट
गीला सीलन और
बिखरी पड़ी नींद
कोने में दुबके दो हाड़ मास के पुतले
भीगे काँपते हुए
तर बतर कपड़ों में लिपटे
ठंडा भीगा चूल्हा
पेट की गुड़गुड़ाहट में भूख
बूँद रोई
कहाँ आ गई
मिली आँसू के साथ
नमकीन हुई
पड़ी रही दिल थामे
देख पीर पराई
पछताई क्यों आई
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