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संग का प्रभाव - सुश्री श्रीधरी दीदी

Thursday, January 21, 2021

/ by Dr Pradeep Dwivedi
सुश्री श्रीधरी दीदी


मनुष्य के जीवन पर संग का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। हम जैसा संग करते हैं वैसी ही हमारी चित्तवृत्ति हो जाती है, पुनः तदनुसार ही मनुष्य का व्यवहार, क्रियाकलाप इत्यादि प्रभावित होते हैं। अतएव हमें इस विषय में सदैव सावधान रहना चाहिए कि हमारा संग कैसा है? हम उचित संग कर रहे हैं अथवा अनुचित? ये समझने के लिए पहले हमें संग के अर्थ को भी गहराई से समझना होगा। 'संग का अर्थ है - मन का लगाव, मन की आसक्ति।' हमारे शास्त्रों के अनुसार मन ही प्रमुख कर्ता माना गया है। अतएव यदि मन का लगाव न हो और शरीरेन्द्रिय से लगाव का कर्म होता दिखाई पड़े तो वह संग नहीं माना जायेगा, वह तो केवल अभिनय मात्र है। अतः इन्द्रियों के साथ मन का संग अथवा केवल मन का संग ही वास्तविक संग है। मन रहित केवल इन्द्रियों का संग वास्तविक संग नहीं है। 

 यह संग दो प्रकार का होता है क्योंकि संसार में सत्य एवं असत्य केवल दो ही तत्त्व हैं, इनके संग को ही सत्संग एवं कुसंग कहा जाता है। सत्य पदार्थ हरि और हरिजन ही हैं अतएव केवल इनमें ही मन-बुद्धि-युक्त सर्वभाव से संग करना ही सत्संग है। इसके अतिरिक्त जितना भी मायिक जगत है वह असत्य है।

सत अर्थ हरि गुरु गोविंद राधे,

संग अर्थ मन का लगाव बता दे।


हरि हरिभक्त सत् गोविंद राधे,

शेष सब जगत असत है बता दे।

 (राधा गोविंद गीत)

 तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद्विषय में मन-बुद्धि-युक्त लगाव हो वही सत्संग है, इसके अतिरिक्त समस्त विषय कुसंग ही है। तो संक्षेप में 'कु' माने खराब, त्याज्य, अग्राह्य, निंदनीय विषय और 'सु' या 'सत्' माने अच्छा, ग्राह्य, वंदनीय, सत्य पदार्थ एवं 'संग' का अर्थ हुआ लगाव यानि मन की आसक्ति।

 अस्तु, आपने सुना होगा 'जैसा संग वैसा रंग' हम जिसका संग करते हैं वैसे ही बन जाते हैं।

सत्संग या कुसंग गोविंद राधे,

जैसा संग वैसा रंग लाये बता दे।

 (राधा गोविंद गीत)

 इसीलिए आत्मकल्याण के लिए हमें सदा कुसंग से बचते हुए सत्संग ही करना चाहिए। क्योंकि सत्संगति से हमारे पापों का क्षय होता है और कुसंग जीव को पापकर्म में प्रवृत्त कर देता है। काम, क्रोधादि माया के समस्त दोष कुसंग पाकर और अधिक बलवान हो जाते हैं। तरंग के समान सूक्ष्म रूप में स्थित दोष भी समुद्रवत् हो जाते हैं। इसीलिए विवेकी मनुष्य को किसी भी स्थान में, किसी भी काल में, किसी भी रूप में मिलने वाले कुसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए और निरंतर सत्संग ही करना चाहिए। जिस अंजन से आँख ही फूट जाए वह अंजन किस काम का? इसी प्रकार जो कुसंग पतनकारक है वह सर्वथा त्याज्य ही है। इसलिए भक्तजन सदैव भगवान से यही प्रार्थना करते हैं - 

बरु भल वास नरक कर ताता,

दुष्ट संग जनि देइ विधाता।

 (रामचरितमानस)

 अर्थात् भगवद्विमुख जनों का, विषयी जनों का संग अर्थात् कुसंग प्राप्त होने से तो नरक में वास करना श्रेष्ठ है क्योंकि एक क्षण का कुसंग भी साधक का पतन करने में समर्थ होता है- 

क्षणभर का कुसंग गोविंद राधे,

अजामिल को महापापी बना दे।


क्षण का ही सत्संग गोविंद राधे,

अजामिल को हरि धाम दिला दे।

 (राधा गोविंद गीत)

 क्षणभर के कुसंग ने अजामिल को महापापी बना दिया था एवं क्षणभर के सत्संग ने उसे हरिधाम दिला दिया। तात्पर्य यही है कि अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को सदा सत्संग ही करते हुए कुसंग (भगवद्विमुख विषयी जनों के संग) से सर्वदा बचना चाहिए।


सुश्री श्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

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