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पुष्पा कुमारी "पुष्प" पुणे (महाराष्ट्र) |
"भैया! दस वाली चाय अब हमें भी पंद्रह की कर देनी चाहिए।"
चाय के बड़े से पतीले को रगड़-रगड़ कर साफ करता छोटे आज अपने बड़े भाई को सलाह दे बैठा।
"नहीं छोटे! ग्राहक कम हो जाएंगे।"
"लेकिन कहीं कुछ तो कटौती हमें करनी ही चाहिए ताकि कुछ बचत कर हम भी चाय की एक बड़ी दुकान खोल सके।"
बड़ी-बड़ी दुकानों के सामने वर्षों से टाट-पटिया जोड़कर चाय की दुकान लगाने वाले अपने बड़े भाई से वह अपने मन की बात कह गया।
"आधा दूध और आधा पानी वाले धंधे में कहां कटौती कर सकेंगे हम?"
बड़े भाई ने उसकी सलाह को सिरे से खारिज कर दिया लेकिन वह कहां मानने वाला था!.
"भैया! साहू के भैंस की दूध और रामदेव कुम्हार के कुल्हड़ पर ही कुछ कैंची चलाइए।" उसने कटौती का उपाय सूझा दिया।
"अरे नहीं!.दूध तो जरूरी है भले ही कुल्हड़ तनिक महंगी पड़ती है।"
"भैया!.क्यों ना हम कुल्हड़ हटा दें!"
"नहीं छोटे! चाय का असल स्वाद तो कुल्हड़ में ही है।"
"भैया मुझे नहीं लगता इससे ग्राहकों को कोई फर्क पड़ता है!"
"फर्क तो पड़ता है!"
"कौन सा ग्राहक कुल्हड़ अपने साथ ले जाता है?.सारी टूट कर हमारे सामने यहीं मिट्टी में मिल जाती है।"
"तू नहीं समझेगा!"
"क्यों नहीं समझूंगा भैया?"
"तो समझने की कोशिश कर!.हर ग्राहक यहां सिर्फ चाय पीने नहीं आता।"
"फिर क्या करने आते हैं?"
पतीले पर तेजी से चलता छोटे का हाथ रूक गया लेकिन भैया ने अपनी बात पूरी की।
"ग्राहकों में कई ऐसे भी होते हैं जो यहां कुल्हड़ में चाय पीने के बहाने देश की मिट्टी को होठों से चूमने आते हैं।