इंडेविन न्यूज नेटवर्क
![]() |
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी |
हमारी यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है। मां कल्याणी है, वहीं पत्नी है, गृहलक्ष्मी है। बिटिया राजनंदिनी है और नई नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। हर रूप में वह आराध्या है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था -
‘‘कीर्तिः श्री वाक् नारीणां
स्मृति मेधा धृतिः क्षमा।’’
अर्थात नारी में मैं, कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ। दूसरे शब्दों में इन नारायण तत्वों से निर्मित नारी ही नारायणी है।
संपूर्ण विश्व में भारत ही वह पवित्र भूमि है, जहां नारी अपने श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त हुई है। ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है। फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है। जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है। प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती है। देवी भागवत के अनुसार - समस्त विधाएं, कलाएं, ग्राम्य देवियां और सभी नारियां इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं।
एक सूक्ति में देवी कहती हैं -
‘‘मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं । मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ।’’ विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं।
गति, लय, ताल तरंग सब पायल के नन्हे घुंघरुओं से खनक उठते हैं। बाह्य श्रृंगार से आंतरिक कलात्मकता मुखरित होने लगती है। पर्वों की रौनक से उसके चेहरे का नमक चमक उठता है।शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण संगम है भारतीय नारी। नौ पवित्र दिनों की नौ शक्तियां नवरात्रि में थिरक उठती हैं। ये शक्तियां अलौकिक हैं। परंतु दृष्टि हो तो इसी संसार की लौकिक सत्ता हैं।
शरीर को सही रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर 6 माह के अन्तराल से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमशः मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
भारत के पर्वों, अनुष्ठानों, तप, साधना, व्रत, उपवास के उद्देश्यों में कोई न कोई कारण अवश्य होता है। नवरात्रि पर्व को हम जीवन साधना का पर्व कह सकते हैं। जिस प्रकार वाहन के पहियों में भरी हवा धीरे-धीरे कम होने लगती है, उसमें नयी हवा भरनी पड़ती है। पेट खाली होता है, तब उसे फिर भरना अर्थात खुराक लेना पड़ता है। इसी प्रकार से जीवन का ढर्रा यदि एक सा चलता रहे तो नीरसता आने लगती है। इसमें नई शक्ति, स्फूर्ति के लिये कुछ नया प्रयास करना पड़ता है। देवीभागवत् पुराण के अनुसार पूरे वर्ष में चार नवरात्र आते हैं, जिनमें 2 गुप्त नवरात्र सहित शारदीय नवरात्र और बासंती नवरात्र जिसे चैत्र नवरात्र कहते हैं शामलि हैं। दरअसल यह चारों नवरात्र ऋतु चक्र पर आधारति हैं और सभी ऋतुओं के संधकिाल में मनाये जाते हैं।
ज्योतिष की दृष्टि से चैत्र नवरात्र का विशेष महत्व है क्यांेकि इस नवरात्र के दौरान सूर्य का राशि परिवर्तन होता है। सूर्य 12 राशियों में भ्रमण पूरा करते हैं और फिर से अगला चक्र पूरा करने के लिये पहली राशि मेष में प्रवेश करते हैं। सूर्य और मंगल की राशि मेष दोनों ही अग्नि तत्व वाले हैं इसलिए इनके संयोग से गर्मी की शुरुआत होती है। चैत्र नवरात्र से हिन्दू नववर्ष के पंचांग की गणना शुरू होती है। इसी दिन से वर्ष के राजा, मंत्री, सेनापति, वर्षा, कृषि के स्वामी ग्रह का नर्धिारण होता है और वर्ष में अन्न, धन, व्यापार और सुख शान्ति का आंकलन किया जाता है। नवरात्र में देवी और नवग्रहों की पूजा का कारण यह भी है कि ग्रहों की स्थिति पूरे वर्ष अनुकूल रहे और जीवन में खुशहाली बनी रहे। धार्मकि दृष्टि से नवरात्र का अपना अलग ही महत्व है क्योंकि इस समय आद्यशक्ति जिन्होने इस पूरी सृष्टि को अपनी माया से ढ़का हुआ है। जिनकी शक्ति से सृष्टि का संचलन हो रहा है, जो भोग और मोक्ष देने वाली देवी हैं वह पृथ्वी पर होती है। इसलिये इनकी पूजा और आराधना से इच्छति फल की प्राप्ति अन्य दिनों की अपेक्षा जल्दी होती है।
जहां तक बात है चैत्र नवरात्र की तो धार्मिक दृटि से भी इसका खास महत्व है क्योकि चैत्र नवरात्र के पहले दिन आद्यशक्ति प्रकट हुई थी और देवी के कहने पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था। इसलिये चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हिन्दू नववर्ष शुरु होता है। चैत्र नवरात्र के तीसरे दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में पहला अवतार लेकर पृथ्वी की स्थापना की थी। इसके बाद भगवान विष्णु का सातवां अवतार जो भगवान राम का है वह भी चैत्र नवरात्र में हुआ था। इसलिये धार्मिक दृष्टि से भी इस नवरात्र का बहुत महत्व है।
नवरात्र का महत्व सिर्फ धर्म, अध्यात्म और ज्योतिष की दृष्टि से ही नहीं है बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसका अपना महत्व है। नवरात्र के दौरान व्रत और हवन पूजन स्वास्थ्य के लिये बहुत ही अच्छा होता है। इसका कारण यह है कि चारों नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में होते हैं अर्थात इस समय मौसम में बदलाव होता है। जिससे शारीरिक और मानसिक बल की कमी आती है। शरीर और मन को पुष्ट और स्वस्थ बनाकर नये मौसम का सामना करने के लिये तैयारी के रूप में व्रत-उपवास का विधान है।
कलश स्थापना का मुहूर्त और पारण - नव संवत्सर आरम्भ एवं पक्षारम्भ 29 मार्च बुधवार को ही प्रतिपदा में द्वितीया तिथि का क्षय हो गया है। बुधवार से सम्वत्सर का आरम्भ होने से वर्षेश अथवा राजा का पद बुध को प्राप्त हो गया है। आज से ही वासन्तिक नरात्र भी प्रारम्भ हो जायेगा। कलश स्थापना के लिये प्रातः काल 6 बजकर 32 मिनट तक का समय सर्वोत्तम रहेगा। विकल्प में मध्याह्न 11/35 से 12/23 बजे अभिजित मुहूर्त में भी कलश स्थापन किया जा सकेगा। चेत्र नवरात्र 8 दिन का एवं पक्ष 14 दिन का ही है। चैत्र नवरात्र में आद्यशक्ति भगवती के 9 रूपों के साथ-साथ 9 गौरी के दर्शन-पूजन का भी पुण्यफलदायक विधान है। नवरात्र से सम्बन्धित पूजन व हवन की समाप्ति 5 अपै्रल बुधवार को दिन में 12 बजकर 50 मिनट तक नवमी तिथि के अन्दर ही कर ली जायेगी। 9 दिन का नवरात्र-व्रत रखने वाले 6 अपै्रल गुरूवार को पारण करेंगे।
मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई, इसलिये इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। कलश स्थापना, देवी दुर्गा की स्तुति, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध। यह नौ दिनों तक चलने वाले साधना पर्व नवरात्र का चित्रण है। हमारी संस्कृति में नवरात्र पर्व की साधना का विशेष महत्त्व है। नवरात्र में ईश-साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान प्रत्येक इंसान एक नये उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। वैसे तो ईश्वर का आशीर्वाद हम पर सदा ही बना रहता है, किन्तु कुछ विशेष अवसरों पर उनके प्रेम, कृपा का लाभ हमें अधिक मिलता है। पावन पर्व नवरात्र में देवी दुर्गा की कृपा, सृष्टि की सभी रचनाओं पर समान रूप से बरसती है। इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्यों को लोक मंगल के क्रिया-कलापों में आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
हमारे शरीर में दो इंद्रियां बड़ी प्रबल होती हैं- पहली जिव्हा दूसरी कामेच्छा। इन दोनों की साधना प्रायः नवरात्रि पर्व पर हो जाती है। नमक, मिर्च, मसाला, मीठा, खट्टा, चटपटा ये हमारी जीभ को चटोरा बनाते हैं। इन सब पदार्थों से जो स्वाद मिलते हैं, उनके खाने के लिये जीभ ही तो ललचाती रहती है। अतः नवरात्रि व्रत पर जीभ को थोड़ा संयम बरतना पड़ता है। इससे हमारी जीभ को संतुष्टि मिले या न मिले, हमारे मन को बहुत शांति और संतुष्टि मिलती है। वस्तुतः जिव्हा का संयम नवरात्रि में तप साधना का प्रयोजन पूरा करता है। नवरात्रि, पेट का अर्द्धवार्षिक विश्राम है। इससे आने वाली अगले छह माह की विसंगतियों का संतुलन बना रहता है।
दूसरी इंद्रिय है कामेच्छा। जब व्यक्ति नौ दिन का व्रत रखता है, अनुष्ठान करता है तब स्वतः ही मानसिक धर्ममय एवं आध्यात्मिकता की ओर झुक जाता है। इसके साथ-साथ शारीरिक ब्रह्मचर्य का भी पालन हो जाता है। मानसिक ब्रह्मचर्य के लिये यह आवश्यक है कि कुदृष्टि और अश्लील व कामुक चिन्तन से बचा जाये। पुरुष नारी को दैवीय व नारी पुरुष को देवता स्वरूप में देखे एवं श्रध्दा भरा पूज्य भाव अपनाये।
आयु अनुसार कन्या रूप का पूजन - नवरात्र में सभी तिथियों को एक-एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा होती है।
2 वर्ष की कन्या (कुमारी) के पूजन से दुख और दरिद्रता मां दूर करती हैं।
3 वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति रूप में मानी जाती है। त्रिमूर्ति कन्या के पूजन से धन-धान्य आता है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
4 वर्ष की कन्या को कल्याणी माना जाता है। इसकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है।
5 वर्ष की कन्या रोहिणी कहलाती है। रोहिणी को पूजने से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है।
6 वर्ष की कन्या को कालिका रूप कहा गया है। कालिका रूप से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।
7 वर्ष की कन्या का रूप चंडिका का है। चंडिका रूप का पूजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
8 वर्ष की कन्या शाम्भवी कहलाती है। इसका पूजन करने से वाद-विवाद में विजय प्राप्त होती है।
9 वर्ष की कन्या दुर्गा कहलाती है। इसका पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है तथा असाध्य कार्यपूर्ण होते हैं।
10 वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। सुभद्रा अपने भक्तों के सारे मनोरथ पूर्ण करती है।
नौ दिन अर्थात हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा अर्थात पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी या यूं कहे कि 9 द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्तिरूपी दुर्गा के 9 रूप हैं। जो इस प्रकार है- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।
नारी शक्ति का सम्मान केवल नवरात्रि पर्व तक ही सीमित न रखें, इस सम्मान को हमेशा बनाये रखें। मधुर मुस्कान और मोहक व्यक्तित्व से संपन्न सृष्टि की इतनी सुंदर रचना हमारे बीच है, पर हमारी दृष्टि क्यों बाधित हो जाती है? क्यों नहीं पहचान पाते हम? हजारों वर्ष पहले, जब वेदों का बोलबाला था, भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव नहीं बरता जाता था। इसके फलवरूप समाज के सभी कार्यकलापों में दोनों की समान भागीदारी होती थी। पुराणों के अनुसार जनक की राजसभा में महापंडित याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी नामक विदुषी के बीच अध्यात्म-विषय पर कई दिनों तक चले शास्त्रार्थ का उल्लेख है। याज्ञवल्क्य द्वारा उठाए गए दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देने में विदुषी मैत्रेयी समर्थ हुईं।
लेकिन जीवन के कुछ बारीक मसलों को लेकर मैत्रेयी द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ होकर याज्ञवल्क्य डगमगाए। अंत में उन्हें हार माननी पड़ी। स्पष्ट है कि नारियों की महिमा उस युग में उन्नत दशा में थी। भारतीय अध्यात्म हमेशा से पुरुषों और स्त्रियों का एक समृद्ध मिश्रण रहा है, जिन्होंने अपनी चेतना की ऊंचाइयों को प्राप्त किया है। जब आंतरिक प्रकृति की बात आती है, तो बिना किसी संदेह के यह साबित हो चुका है कि स्त्री उतनी ही सक्षम है जितना कि पुरुष। जिसे आप स्त्री या पुरुष कहते हैं, वह केवल खोल होता है। आत्मा तो एक ही है। या तो आप पुरुष का खोल पहने हैं या फिर स्त्री का। बात बस इतनी ही है।