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प्राचीन काल का हिंदू धर्म क्या आज के हिंदुत्व से अलग था?

Wednesday, April 7, 2021

/ by Dr Pradeep Dwivedi

 इंडेविन न्यूज नेटवर्क

एक हज़ार साल पहले का भारत आज के भारत से बहुत अलग था। तब तक मध्य एशिया के मुस्लिम सरदारों ने उत्तर भारत पर धावा नहीं बोला था। भारतीय नाविक मानसूनी हवाओं का लाभ उठाते हुए भारत के तट से दक्षिण पूर्व एशिया तक यात्रा करते थे। जब सर्दियों में हवाएं पलटतीं, तब उनकी मदद से वे भारत लौट आते। ये यात्राएं कई सदियों पहले शुरू हुई थीं, संभवतः 2,500 साल पहले, बुद्ध के काल में। शुरू में ओडिशा और बंगाल के लोग इन यात्राओं पर जाते। 10वीं सदी तक चोल साम्राज्य में तमिलनाडु के लोग भी इन यात्राओं पर जाने लगे थे। चोल साम्राज्य में ये यात्राएं अपने चरम तक पहुंच गई थीं।

उस काल का हिंदू धर्म भी बहुत अलग था - वह भौतिक सफलता अर्थात अर्थ और भौतिक सुख अर्थात काम को प्राप्त करने को महत्व देता था। यह सफलता और सुख राजसी व्यवस्था अर्थात धर्म के मार्गदर्शन व उसकी मदद से प्राप्त होते थे। दक्षिण भारत के रामानुज और माधव जैसे वेदांत आचार्यों के उदय के बाद पिछले 1,000 वर्षों में हिंदू धर्म में मुक्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति को दिया गया महत्व इस काल में दिखाई नहीं देता है। भक्ति आज के हिंदू धर्म की आधारशिला है, लेकिन उस काल में ऐसा नहीं था।

यह हमें उस काल के हिंदू धर्म से पता चलता है, जो समुद्र-व्यापारियों के साथ दक्षिण पूर्व एशिया में अब के कंबोडिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया तक पहुंचा। इस हिंदू धर्म का स्वरूप हम 800 और 1400 ईस्वीं के बीच निर्मित की गई भव्य परियोजनाओं में देखते हैं। ये आज बौद्ध देश हैं, जिनमें प्राचीन काल में हिंदू धर्म हुआ करता था। इनमें से अधिकांश देशों में इतिहासकारों को संस्कृति की कई सतहें मिली हैं: पहले एक स्वदेशी जनजातीय संस्कृति, जिसके बाद आती है हिंदू धर्म से प्रभावित संस्कृति, अक्सर बौद्ध धर्म के साथ मिली हुई। यह बौद्ध धर्म ज़्यादातर कई शस्त्रों और सिर वाले बोधिसत्वों का उत्तरकालीन महायान बौद्ध धर्म होता था। इसके बाद यहां अधिक औपचारिक और कम दिखावटी वाले महायान बौद्ध धर्म दिखाई देने लगा। इंडोनेशिया जैसे कुछ देशों में 14वीं सदी के बाद बौद्ध धर्म की जगह इस्लाम ने ले ली। लेकिन इस्लामी कट्टरपंथी मानते हैं कि भारत से प्रभावित सूफ़ी इस्लाम पहुंचने से पहले शुद्ध ‘इस्लाम’ 9वीं सदी से पहले यहां पहुंच गया था।

अंगकोर वाट के खंडहरों, बाली में रामायण के प्रदर्शनों और थाईलैंड के भव्य बौद्ध मंदिरों से जहां राजाओं को राम और राजधानियों को अयोध्या का नाम दिया जाता था, हमें शिव, विष्णु, कृष्ण, राम, इंद्र और ब्रह्मा जैसे देवताओं के साथ अंतरंगता दिखाई देती है। इसके साथ रामायण और महाभारत के महाकाव्यों, क्षीरसागर और मंदरा पर्वत, यहां तक कि हिंदू और बौद्ध धर्म की स्वर्ग, नरक और नाग-लोक की पौराणिक धारणाओं के साथ भी अंतरंगता दिखाई देती है।

लेकिन यहां कम प्रतिमाओं वाली देवी की पूजा के साथ कम परिचय दिखाई देता है। बाली में खून पीने वाली दानव-रानी रांगडा की कहानी काली की कहानी से कुछ हद तक मिलती है। लेकिन यहां उनका नकारात्मक स्वरूप है और अच्छी आत्माओं के शेरों समान नेता 'बारोंग' उन्हें हराते हैं।

भक्ति की अनुपस्थिति सबसे स्पष्ट है। यहां ना दक्षिण भारत को भक्ति का परिचय देने वाले अलवार और नयनार कवियों के जोशीले गीत हैं, ना कृष्ण की राधा या रास-लीला है, ना माधुर्य-भाव अर्थात प्रेम है और ना ही विरह-भक्ति है। सिर्फ़ युद्ध व प्रकृति और शत्रुओं पर विजय की छवियां हैं।

अगस्त्य और कौंडिन्य जैसे साहसिक ब्राह्मण-पुजारियों ने इन देशों की यात्रा की और वहां सफलता प्राप्त की। कई प्राचीन किंवदंतियों के अनुसार उन्होंने स्थानीय नाग राजकुमारियों से विवाह किया। स्थानीय राजाओं को सक्षम बनाकर, रहस्यमय शिव से संबंधित तांत्रिक साधनाओं के माध्यम से भाग्य बढ़ाने वाली ऊर्जाओं को आकर्षित कर और विष्णु के माध्यम से व्यवस्था बनाकर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की। इससे हम समय और स्थान के साथ हिंदू विचारों में बदलाव के बारे में बहुत कुछ समझ सकते हैं।

- देवदत्त पटनायक प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों के आख्यानकर्ता और लेखक हैं।

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