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दादी -नानी से सुनते थे महामारी के किस्से - शैलेंद्र श्रीवास्तव

Tuesday, May 11, 2021

/ by Dr Pradeep Dwivedi
रचनाकार - शैलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रसिद्ध अभिनेता व लेखक


महामारी के क़िस्से

बुज़ुर्गों, दादियों और नानियों से

सुना करते थे...

पर कोई महामारी

मुई... वूहान वाली...

यूँ सामने 

तन के खड़ी हो जाएगी...

यूँ ज़िन्दगी से टकराएगी...

कभी सोचा न था!

यूँ नानी याद दिलाएगी

कभी सोचा न था!

हमें ऐसे डराएगी

कभी सोचा न था!

ज़िन्दगी यूँ ठहर जाएगी

कभी सोचा न था!

ख़ौफ़ का ऐसा मंज़र..!

तसव्वुर ना किया होगा किसी ने

रोज़ हर लम्हा...

कोई अपना गुज़र जाता है!

छोड़ जाता है साथ अपनो का

रुला जाता है...

हमेशा के लिए...!!!

जिसकी बातें कभी हँसाती थीं

उसकी ख़बरें अभी रुलातीं हैं!

ख़ता कोई तो हुई है हमसे

मुँह दिखाने के भी क़ाबिल ना रहे

ओढ़ें रहते हैं...

एक छोटा सा नक़ाब

मुँह को ढकने के लिए

ऐसा कैसे हो गया?

और कैसे ऐसा हो गया?

ये एक बड़ा सवाल है?

आज हालात हुए हैं ऐसे

ज़िन्दगी ख़ुद सवाल बन गई है!

घरों में बन्द है इन्सान!

या दाख़िल है, अस्पतालों में!

ईश्वर, ख़ुदा, वाहेगुरु, यीसू 

सबने दरवाज़े बंद कर दिए हैं!

मन्दिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों

और गिरिजाघरों के...!

और नमूदार हो गए हैं...

प्रकट हो गए हैं...

अस्पतालों में पी.पी.ई. किट पहन

डॉक्टरों, नर्सों के रूप में...

नाम अलग हैं उनके

पर दिखते एक से ही हैं

जैसे परमात्मा...

एक ही तो है

किसी नाम से पुकार लो...

सुनता है...

दवा कोई नहीं है 

बस दुआओं का सहारा है

सुना है...

दुआओं में, प्रार्थनाओं में

असर होता है...

वहाँ देर है, अंधेर नहीं...

सुहाना वक़्त नहीं रहा 

तो बुरा भी नहीं रहेगा

मरेगा... मरेगा... मरेगा

ये करोना भी मरेगा

हौसला रखना है

हिम्मत रखना है

पाबन्दियों में रहना है

एकजुट लड़ना है...

विजय...

निश्चित है... निश्चितहै...निश्चित है...

रात कितनी भयावह हो

घनी काली हो...

सुबह होती है...

सुबह होती है...

सुबह होती है...

                  

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