योशिता पांडेय, देहरादून
आज से कुछ बरस पहले तक मीडिया में अँगुलियों पर गिनी जाने वाली महिलाएँ थीं। मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है ,जहां पर संभावना भी हैं और चुनौती भी। संभावना है तो चुनौती के साथ अवसर भी हैं।80 के दशक की बात करें तो उस वक्त दूरदर्शन पर एक महिला एंकर थी सलमा सुल्तान और पुरुष एंकर में थे शम्मी नारंग।जिनकी आवाज हम बचपन में बड़े चाव से सुनते थे और इसी समय से केबल टीवी इत्यादि का दौर शुरू हुआ।साथ ही महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी और लोगों का मिथक भी टूटा कि महिलाएं घर से बाहर निकल कर के कुछ कर ही नहीं सकती हैं।अब स्थिति भिन्न है।आज मीडिया-जगत का ऐसा कोई कोना नहीं , जहाँ महिलाएँ आत्मविश्वास और दक्षता से मोर्चा नहीं संभाल रही हो।विगत वर्षों में प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट पत्रकारिता की दुनिया में महिला स्वर प्रखरता से उभरें है।
पहाड़ी राज्यों में , बात करें उत्तराखंड की तो विगत 20 वर्षों में महिलाओं की स्थिति में काफी ज्यादा बदलाव आए हैं।काफी बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल्स, न्यूज़पेपर में उत्तराखण्ड की बेटियां मीडिया के क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही है।इस जगमगाहट का एक मुख्य कारण यह भी है कि पत्रकारिता के लिए जिस वांछित संवेदनशीलता की जरुरत होती है वह महिलाओं में नैसर्गिक रूप से पाई जाती है।पत्रकारिता में एक विशिष्ट किस्म की संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है और समानांतर रूप से कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त करने की भी। संवाद और संवेदना के सुनियोजित सम्मिश्रण का नाम ही सुन्दर पत्रकारिता है।महिलाओं में संवाद के स्तर पर स्वयं को अभिव्यक्त करने का गुण भी पुरुषों की तुलना में अधिक बेहतर होता है। यही वजह है कि दिन प्रतिदिन मीडिया में महिलाओं का गरिमामयी वर्चस्व बढ़ा है।
पत्रकार की तीसरी महत्वपूर्ण योग्यता गहन अवलोकन क्षमता और पैनी दृष्टि कही जाती है। यहाँ भी महिलाओं का पलड़ा भारी है। जिस बारीकी से वह बाल की खाल निकाल सकती है वह पुरुषों के बस की बात नहीं है। यह गुण भी महिलाओं में नैसर्गिक होता है।पिछले कुछ सालों में मीडिया में महिलाओं ने एक और भ्रम को सिरे से खारिज किया है कि पत्रकार होने के लिए लड़कों की तरह कपड़े पहने जाएँ या बस रूखी-सूखी लड़कियाँ ही पत्रकार हो सकती है। अपने नारीत्व का सम्मान करते हुए और शालीनता कायम रखते हुए भी सशक्त पत्रकारिता की जा सकती है । यह इस दौर की पत्रकारिता में दिखाई दिया है।
इसी से जुड़ी समाज की एक मिथक भी है की महिलाएं सज धज कर, शोषित होकर आगे बढ़ी होगी किन्तु वास्तविकता कुछ और है । अगर प्रतिभा की चमक नहीं होगी तो 'गलत' सीढि़यों से मिली मंजिल मुँह के बल ला पटकती है। मेरे विचार से सौन्दर्य अवसर तो दिला सकता है मगर स्थायित्व और सफलता नहीं। अपने मेहनत के बल पर मिली सफलता चाहे धीमें मिले पर चेहरे से नजर आती है और भिन्न तरीकों से मिली सफलता आरंभ में चमकती है लेकिन थोड़े ही समय बाद चेहरा छुपाने को बाध्य करती है।
एक महिला पत्रकार होने के नाते मैं बदलाव से इनकार नहीं कर सकती, लेकिन अनुभव से इतना जरूर कहूंगी कि प्रत्येक क्षेत्रों की तरह मीडिया में भी पुरुषवादी सोच हावी है।पत्रकारिता करना अपने आप मे चुनौतीपूर्ण कार्य है और खासकर जब हम महिला पत्रकार की बात करते है तो यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। आज समय काफी बदल गया है । पहले की तुलना में आज महिलाओं के लिए कई अवसर हैं, लेकिन आज भी हम महिलाओं को अपना वजूद बनाने के लिए जद्दोजहद करना पड़ता है । जब एक लड़की अपना वजूद तलाशते हुए कुछ करने की ललक लेकर के घर से बाहर निकलती है तो सबसे पहले उसकी लड़ाई और संघर्ष उसके परिवार से शुरू होता है।वह दौर सबसे भयावह होता है जब हम अपनों से लड़ते-लड़ते अपने वजूद की तलाश करते हैं। आज प्रत्येक बीट पर महिलाएं रिपोर्टिंग कर रही है। कई बार महिला पत्रकार के लिए असहज क्षण भी आते हैं।कई बार आसपास के लोगों की मानसिकता के ख़िलाफ़ भी लड़ना पड़ा है। कई बार कई ऐसे सवाल पूछे जाते हैं जिनसे बहुत ही असहज महसूस होता है ।
हालाँकि इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया में यह 'सब-कुछ' होता है। अच्छी खबर यह है कि हिन्दी बहुल क्षेत्रों में अभी इस 'फ्लू' का प्रकोप उतना नहीं फैला है जितना महानगरों में। लेकिन उसके लिए भी सीधे तौर पर ना तो महिलाएँ जिम्मेदार कही जा सकती है ना ही मीडिया। हाल फिलहाल में परिस्थिति, संस्कार और मूल्य बदले हैं। जरूरतें बदली हैं। सोच और नजरिए में फर्क आया है।आज महानगरों में संस्कृति को 'विकृति' में परिणत करने के हमले निरंतरता से जारी है। उस पर से सफलता प्राप्ति के लिए इंतजार करना और सही-गलत के झमेले में पड़ना आधुनिक लड़कियों को नागवार गुजरता है। वह भी तब जब वह अपने को तेजी से आगे बढ़ते हुए देखती है। ऐसे में अपने पास आसानी से उपलब्ध रास्तों को आजमाने में उसे कोई गुरेज नहीं होता। एक बार पुनः स्पष्ट करते चलें कि ऐसी स्थिति उन्हीं चंद लड़कियों के साथ होती है जिन्हें अपनी प्रतिभा, लेखनी और मेहनत पर विश्वास नहीं।
बावजूद इसके कि मीडिया-जगत में महिलाओं का शोषण विभिन्न स्तरों पर होता है, मेरा आग्रह है कि ऐसा तब ही है जब महिलाओं की इसमें मौन स्वीकृति शामिल हो। अन्यथा जब तक व्यक्ति खुद ना चाहे उसे ना तो शोषित किया जा सकता है और ना ही प्रताडि़त।अपवाद हर जगह हैं,प्रत्येक क्षेत्र में है क्योंकि सही-गलत का अंतर हर युग में था और रहेगा। इस 'सही' को पहचानने के लिए अपवाद जरूरी है। मीडिया में आपसे पहले आपकी प्रतिभा और दक्षता खुद बोलती है। यहाँ छल, छद्म, झूठ और मक्कारी आपको ले डूबते हैं। मैं मानती हूँ कि महिलाओं के लिए यह सुरक्षित क्षेत्र है । बस इसे सम्मानजनक भी बना रहने दें,यह मीडिया की ही जिम्मेदारी है। मीडिया क्या है?लोकतंत्र का चौथा स्तंभ।हम ही तो हैं। हम से ही तो हैं। इसके मूल्य बचे रहें, साथ ही मीडिया एक ऐसा माध्यम है जो महिलाओं को एक पहचान दिलाता है, सम्मान दिलाता है और आत्मनिर्भर भी बनाता है।।यह कहना गलत नहीं होगा की पत्रकारिता की युग में महिलाओं की भागीदारी जिस प्रकार से बढ़ रही है और महिलाएं पत्रकारिता के प्रत्येक बीट पर जिस प्रकार से अपना लोहा मनवा रही है, वह आत्मनिर्भर भारत की ओर एक और बढ़ता कदम है।