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“ख़्वाहिशों का बोझ” - शैलेन्द्र श्रीवास्तव

Tuesday, May 25, 2021

/ by Dr Pradeep Dwivedi

 

शैलेन्द्र श्रीवास्तव
प्रसिद्ध अभिनेता व लेखक

ख़्वाहिशों का बोझ 

ख़ामख़ा सर पे उठा रखा था...!

देश बन्दी में... 

शहर बन्दी में...

महामारी की बन्दिशों में

ये एहसास हुआ...

ज़रूरतें बहुत कम हैं अपनी...!

रोटी दो वक़्त की

दो कपड़ा जिस्म ढकने को

सर छुपाने को छत

या कोई हुज़रा...

एक अदद बिस्तर बस...

महामारी की बन्दिशों में

ये एहसास हुआ...

ज़रूरतें बहुत कम हैं अपनी...!

ख़ामख़ा बोझ लिए फिरते हैं...

बड़ी कारों का, बड़े बँगलों का

हो सामान सौ बरस का

ऐशो-आराम का...

सोने चाँदी के सारे बर्तन हों

हीरे मोती से जड़े गहने हों

महँगे कपड़े हों

महँगी घड़ियाँ हों

वग़ैरह... वग़ैरह... वग़ैरह...

महँगी घड़ियाँ 

क्या है वक़्त ये बतलातीं हैं

उलझा ग़र वक़्त हो 

सुलझा कभी ना पाती हैं

इत्र परफ़्यूम होते हैं

दूसरों के लिए...

लगा लो जिस्म पे 

कपड़ों पे चाहे जितना भी

ख़ुशबू ख़ुद को कभी नहीं आती...

आलमारी से झाँकते हुए

महँगे कपड़े

जिस्म ढकने से ज़्यादा

हम भी कुछ हैं

ये दिखाने के काम आते हैं

साज़ो-सामान सब नुमाइश है...

महामारी की बन्दिशों में

ये एहसास हुआ...

ज़रूरतें बहुत कम हैं अपनी...!

जिस्म जब छूटता है 

सब धरा रह जाता है...

साथ जाता नहीं कुछ

सब यहीं रह जाता है

जिस्म मिट्टी का है 

मिट्टी में ही मिल जाना है

कौन हैं... क्या हैं हम?

किसको यहाँ दिखलाना है

महामारी की बन्दिशों में 

ये एहसास हुआ...

ज़रूरतें बहुत कम हैं अपनी...!

मुश्किल इस दौर ने 

ये सबक़ सिखलाया है

जब यहीं छूटना है 

सब कुछ तो...

शान झूठी... अमीरी झूठी है

ख़ुद के कुछ होने का...

एह्सासे-ग़ुरूर झूठा है...

कोई बड़ा है, कोई छोटा है

ये फ़ासला भी सारा झूठा है

बेवजह...

कोई ज़रूरत ही नहीं...!

ग़र ज़रूरी है तो बस

आपसी रिश्ते अपने

जो कही खो गए हैं

ढूँढे से नहीं मिलते ही नहीं...

क़द्र कर लें...

कि कुछ मालूम नहीं 

साथ अपना कोई

किस लम्हा छोड़ जाएगा...!

ज़िन्दगी महफ़ूज़ हो

ज़रूरी है ज़िन्दगी के लिए...

आओ बन जायें मुहाफ़िज़

सभी अपनों के लिए

क्यूँकि बस प्यार ज़रूरी है

ज़िंदगी के लिए

भरोसा-प्यार की गारा मिट्टी

बहुत ज़रूरी है...

पुख़्ते रिश्तों के लिए

हम किसी का सहारा बने

कोई हमारा सहारा बने

भाई-चारा को छोड़

है नहीं कोई चारा...

बाक़ी फ़िज़ूल है...

फ़क़त दिखावा है...

महामारी की बन्दिशों में

ये एहसास हुआ

ज़रूरतें बहुत कम हैं अपनी...!

ज़रूरतें वाक़ई बहुत कम हैं अपनी...!

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