रचनाकार - शैलेंद्र श्रीवास्तव प्रसिद्ध अभिनेता व लेखक |
एक माँ की
व्यथा कथा
जिसे मैं जानता हूँ
पहचानता हूँ
असहाय हूँ
सहायता कर पाने में...!
पर उस माँ की व्यथा कथा
संसार को सुना तो सकता हूँ...!
अल्पायु में वैधव्य को झेला
मुरझाए स्वप्न कुसुम
झुलसा यौवन उजड़ा जीवन
छूटा जीवन का आकर्षण
तभी अकस्मात्...
नन्हें पुत्र-पुत्री के रुदन ने
माँ का रुदन शाँत किया
दायित्व बोध जागृत किया
ऊर्जा दी, साहस दिया
जिजीविषा का संचार किया
आशा प्रस्फुटित हुई
अंतर्मन स्वर फूटा...
नहीं... टूटूँगी नहीं... कदापि नहीं...
मानवी हूँ... दुर्गा हूँ... सरस्वती हूँ...
शक्ति पुँज हूँ...
स्वयं को, पुत्र-पुत्री को सम्भालना है
शिक्षा देनी है
पालन पोषण देना है...
जीवन सँवारना है...
मातृत्व धर्म है मेरा...
माँ ने दायित्व निभाए
सामर्थ्य से बढ़ चढ़कर
योग्य बनाया
शिक्षा, विवाह सम्पन्न कराया
यथा सामर्थ्य
माँ के संघर्ष, स्नेह के प्रति
पुत्री श्रद्धा से नतमस्तक हुई
चिंतित रहती है सदैव
माँ के सुखद शेष जीवन हेतु...
आतुर रहती है
माँ संग रहे
प्रयास में तत्पर रहती है
किन्तु माँ विचारों से प्राचीन है
भोली है, ज़िद्दी है...
पुत्र संग ही सुख मानती है
विश्वास है चिता को अग्नि देकर
स्वर्ग तो पुत्र ही भेजेगा
माँ समझ नहीं पाती
पुत्र का हृदय परिवर्तन
स्वीकार नहीं कर पाती
उसका दुलारा पुत्र अब...
पुत्र नहीं रहा...
पति बन चुका है
माँ उसे अब बोझ लगने लगी है
पुत्रवधु को भी खलने लगी है
व्यवहार में प्रदर्शित करने लगी है
घर में किच-किच करने लगी है
किन्तु माँ तो माँ ही होती है...
“कुपुत्रो जायेत क्वचिदपी
कुमाता न भवति”
माँ आज भी पुत्र मोह में आकुल है
पुत्र के साथ रहने को व्याकुल है
माँ दुर्व्यवहारों से क्षुब्ध है
पर पुत्रमोह में मौन है
मैंने माँ के मौन को
उसकी व्यथा को
वाणी देने का
शब्द देने का
प्रयास किया है
कितना सार्थक है ये प्रयास
नहीं जानता...!!!
कुछ लोग भूल जाते हैं
वृद्ध सभी को होना है...
जैसी करनी वैसी भरनी...
पुत्र, पुत्रवधु...
माँ की मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
माँ जिजीविषा खो चुकी है
अब स्वयं...
माँ भी मृत्यु की प्रतीक्षा में है!
प्रतीक्षा...प्रतीक्षा...प्रतीक्षा...!!!