रचनाकार - विनीता मिश्र लखनऊ |
हे मानव तुमने
जब - जब ,
ईश्वर बन अवतार लिया ।
नाश किया कितने असुरों का
मानवता उद्धार किया ।।
मानव ही ईश्वर बनता है
उद्धार जगत का करता है ।
जो राह तके अवतारी की
जग के पालनहारी की ।
मानव नहीं वो दानव है ,
भूमिका में अत्याचारी की ।
एक असुर फिर आया है
लील रहा जग सारा है ।
क्या गिद्धराज क्या गौ माता !
या नदी समंदर खारा है ।
किसी को भी ना छोड़ रहा
मीन - गौरैया - पशु - परिंदा !
सबके ऊपर टूट पड़ा
बन कलयुग का क्रूर दरिंदा ।
ये बड़ा सजीला लगता है
पर सबसे हठीला लगता है ।
एक बार जो जन्मे तो
कोटि वर्ष तक रहता है ।
ये सब असुरों का राजा है
प्लास्टिकासुर कहाता है ।
ना शस्त्र - काल ही मार सके
सर्वत्र सर्वस्व मिटाता है ।
धरती आज निस्सहाय हुई
कण - कण उसके घाव भरो ।
हे मानव ! फिर से अवतारी बन कर,
धरती का तुम भार हरो ।
पाँचो तत्व हुए हैं मैले
माँ गऊ बनी फिर रोती है ।
तू किसकी बाट है ताक रहा
मानवता सिसक कर रोती है ।
इक - इक अलख जगाने को
शंकर कौन बुलायेगा ?
तू ही शिव है , तू ही विष्णु
तू ही सृष्टि बचायेगा ।
ये धरा हमीं को धरती है
क्षुधा भी सबकी हरती है ।
क्यूँ मूढ़ बना तू रे निष्ठुर !
ये तुझसे विनती करती है ।
उठ जाग खड़ा तू अब हो जा !
इक यज्ञ का आवाहन कर ले ।
यही अछूत और नीच त्याज्य है
त्याग का इसके संकल्प कर ले ।।