![]() |
लेखिका - पूजा खत्री लखनऊ |
हकीकत के धरातल
पर तेरा, मेरा होना और
फिर दुनिया की भीड़ में
खो जाना इक सपना
सा लगता है
इक अधूरा सा इंतजार
खुद का खुद पे लौट आने का
फिर क्यूं अपने अक्स
में तेरा चेहरा ही
छुपा सा लगता है
बेखबर थे कि मसरूफ हैं
हम तो कब से तुममें ही
अब तो बस तन्हाई में
बेवजह मुस्कुराने
का मौसम सा लगता है
कया बताऊं और क्या छुपाऊं
सोचती हूं खुद में ही अब
सिमट जाऊं कि उन यादों
के साथ चोरी छिपे तुझे
दोहराना अच्छा सा लगता है
बदलते दौर की उन प्रेम
निशानियों को आज
फिर से खुली फिजाओं में
गुलाबी करने में मसरूफ ये
सारा जमाना सा लगता है..
जीवन के आयाम पुस्तक से......