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रचनाकार - रूपा पाण्डेय "सतरूपा" लखनऊ |
इक दिन मैंने माँ से पूछा
गोदी में सिर रख के
माँ ! तू क्यूँ गुमसुम रहती है,
रोती है छुप छुप के ...
क्यूँ तेरे इस मुखमंडल की
कांति हो गयी धुंधली ,
क्यूँ तेरी चोटी रहती है
हरदम उथली पुथली ..
क्या तेरा अनमोल खिलौना
कोई टूट गया है ,
या फिर कोई सच्चा साथी
तुझसे रूठ गया है ...
मेर संग जब ऐसा होता
तब मैं रोया करती ,
फिर बाबा से नया मंगाकर
उससे खेला करती ....
ओरी माँ ! कुछ सुनती है क्या
तुझसे पूछ रही हूँ ,
देख उदासी तेरी
भीतर- भीतर टूट रही हूँ ...
कुछ न बोली !
रही देखती वह अपलक सी मुझको ,
पर उसकी आँखें कहती थीं
क्या बतलायें तुझको ...
उम्र थी छोटी प्रश्न गूढ़ थे
उत्तर समझ न पायी ,
और माँ की कोमल थपकी पा
मुझको निंदिया आई ...!!!!!!!!