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रचनाकार - सीमा मोटवानी फैज़ाबाद |
कितना लिखूं प्रेम पर ,,
सोच कर हूँ दंग प्रिये!!!
ये कौन सी रहस्यमयी नगरी है,
राह जिसकी सकरी है,
आने के सौ-सौ द्वार खुले,
जाने की न कोई डगरी है।
ये कैसी भूल भुलैया है!
बिन पतवारी नैया है,
यहाँ प्रश्नों के समंदर हैं ,
पहेलियों के बवंडर हैं,
मन बूझे तो मन खोये,
न बूझे तो हम खोये।
प्रेम कैसी परिभाषा प्रिये!
न संदर्भ है न व्याख्या प्रिये
शब्दों में कई कई मौन छिपे,,
मौन ने कई कई अर्थ लिये।
कितना लिखूं प्रेम पर,,
सोच कर हूँ दंग प्रिये !!!!