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लेखिका - डिम्पल राकेश तिवारी अयोध्या ( उत्तर प्रदेश) |
तुम्हें देखती हूं
तो यकीन हो जाता हैं
कि
प्रार्थना की देह भी होती है.
मैं देखती हूँ
हरा उजास तुम्हारी आँखों मे,
तुम वसन्त के नितांत प्रेम में डूबे हो,
तुमसे मिलना
भूल जाना कि जीने का
कोई और भी सलीका है,
तुम्हें देखना
बेसुध सा सूखे फर्श पर भी फिसल जाना
तुम्हें छूना
अतृप्त प्रेमियों के वजूद को खारिज करना,
तुम्हारा आलिंगन
दुर्भाग्य का हो जाना सुसुप्त ज्वालामुखी
तुम्हारा साथ
अनामिका पर दुनिया साध सकने का साहस,
तुम्हें पाना
पथिक की अंतिम यात्रा के बाद का ठहराव।