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रचनाकार - डॉ नेहा "प्रेम" पटना |
तुम स्त्री ,मै पुरुष
तुम समझ मेरे एह्सास और जज्बात को
मै किसे कहु ,मुझे भी तकलीफ होता है
तुम मेरे सामने आकर , अपने सारे दर्द और जज्बात बाया कर देती हो
तुम स्त्री ,मै पुरुष
मुझे भी रोने को मन करता ,पर
यह सोचकर चुप हो जाता
अगर मै रो दिया तो तुम्हे कौन चुप कराएगा
तुम स्त्री ,मै पुरुष
मुझे भी लगता है कोई तो हो मुझे कहे ,मै सब संभाल लूंगा
तुम स्त्री ,मै पुरुष
जब मै तकलीफ मे होता
मै बैचैन हो जाता
कभी तुम पूछ तो लेती ,मेरी बैचनी का राज
तुम स्त्री ,मै पुरुष
खुद को समझाना और
खुद सम्भालना ,अब आदत सा बन गया मेरा
अपने गमो को बाटने मौखाने चला जाता ,
कभी तुम पूछ तो लेती गले से लगाकर ,मौखाने क्यू जाते हो
तुम स्त्री ,मै पुरुष।
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