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रचनाकार - सरला शर्मा "आस्मां" लखनऊ |
किसे है शौक़ भला इतने ग़म सजाने का
मगर ये वक़्त है अब ख़ुद को आज़माने का
जो दर्द देख लिया झोपड़ी में ग़ुरबत का
रहा न हौसला फिर मुझमें मुस्कुराने का
शिक़स्त खा के कचहरी से लौट कर सोचा
बचा ही क्या था वहाँ मेरे जीत जाने का
दबा ले दर्द तू झूठी हँसी के पत्थर से
कि ज़ख़्म दुनिया को हरगिज़ नहीं दिखाने का
वो दूर जाता रहा 'अस्मां ' देखती मैं रही
रहा था कुछ भी नहीं रूठने मनाने का
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