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रचनाकार - वर्षा महानन्दा |
भूल गए थे
या स्वयं में ही थे निमग्न,
नहीं पता....
उसे खुश होना है,
उसे भी मुस्कुराना है।
उसके ढेरों सपने हैं,
उसके भी अपने हैं।
फिर भी अपने लिए कुछ चाहना,
स्वार्थ है या अधिकार
नहीं पता....
खुद के भीतर झांका
मन को हजार बार टटोला,
और हर एक गहरी लंबी रात में
नींद से किया विद्रोह।
दिन और रात किस धुन में गुजरे
नहीं पता....
मन और मस्तिष्क के बीच
द्वंद, भयंकर युद्ध,
प्रत्येक क्षण अपने भीतर
एक युद्ध को झेलना।
कैसे ये उलझन सुलझे,
नहीं पता....
इस अथाह यंत्रणा से
गुजरने के बाद भी
अपने और अपनों के बीच
उस समय को गंवा देना,
जो कभी लौटेगा नहीं।
फिर भी निष्कर्ष तक
कैसे पहुंचें..?
नहीं पता....
कब अपने भीतर का स्वार्थ
जो चाहता है खुश होना,
फन फैलाए उस अपने की खुशी को डसे
उससे पहले फन को कुचल दिया हमने,
अंत में उस अपने की खुशी चुन लिया हमने।
कैसे नहीं पता....
मुठ्ठी भर रौशनी सौंपकर,
अनिश्चित झुंझलाहट
और धुंधलेपन में,
कब-तक झूलते रहेंगे हम..?
कब-तक खुद से
जीतते या हारते रहेंगे हम..?
नहीं पता....
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