रचनाकार - सीमा मोटवानी फैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश) |
स्त्री तुमने खुद को क्यों अस्तित्वहीन कर दिया?
घर,परिवार,मायका, ससुराल
दुनियां,समाज के परे भी तुम हो.
क्योंकि तुम हो
जो नदियों संग बहना भी चाहती हो ,
फूलों संग महकना भी चाहती हो,
सूरज के साथ उगना भी है,
चाँद के साथ सोना भी है,
चिड़ियों सा चहकना भी तुमको,
प्रकति के साथ बहकना भी तुमको,
फिर क्यों खुद को अस्तित्वहीन कर दिया?
मन की तुम क्यों न सुन पायी कभी!
दौड़ ख़ुद की ख़ुद तक क्यों न लगायी कभी!
बात दूसरों की सब सुन,
अपनी गुहार दबायीं सभी!
मन मन विचलित होकर भी,
अश्क़ तुम्हारे मुस्कुराये सभी,
स्त्री तुमने खुद को क्यों अस्तित्वहीन कर दिया?
क्यों कर दिया???